तिलक लगाये माला पहने भेस बनाये बैठे हैं,
तपसी की मुद्रा में बगुले घात लगाये बैठे हैं।
घर का जोगी हुआ जोगिया आन गाँव का सिद्ध हुआ,
भैंस खड़ी पगुराय रही वे बीन बजाये बैठे हैं।
भैंस खड़ी पगुराय रही वे बीन बजाये बैठे हैं।
नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज करने
सभी मियाँ मिट्ठू
घर की इज्जत गिरवीं रखकर विश्व बैंक के लॉकर में,
बड़े मजे से खुद को साहूकार बताये बैठे हैं।
बड़े मजे से खुद को साहूकार बताये बैठे हैं।
उग्रवाद के आगे इनकी बनियों वाली भाषा है,
जबसे इनका भेद खुला है खीस काढ़नी भूल गये,
शीश उठाने वाले अपना मुँह लटकाये बैठे हैं।
शीश उठाने वाले अपना मुँह लटकाये बैठे हैं।
मुँह में राम बगल में छूरी लिये बेधड़क घूम रहे,
आस्तीन में साँप सरीखे फ़न फैलाये बैठे हैं।
आस्ती
विष रस भरे कनक घट जैसे चिकने चुपड़े चेहरे हैं,
बोकर पेड़ बबूल आम की आस लगाये बैठे हैं।
बो
नए मुसलमाँ बने तभी तो डेढ़ ईंट की मस्जिद में,
अल्लाह अल्लाह कर खुद को ईमाम बताये बैठे हैं।
दाल भले ही गले न फिर भी लिये काठ की हाँडी को,
ये चुनाव के चूल्हे पर कब से लटकाए बैठे हैं।
ये चुनाव के चूल्हे पर कब से लटकाए बैठे हैं।
मुँह में इनके दाँत नहीं हैं और पेट में आँत नहीं,
कुड़ी देखकर मेकअप से चेहरा चमकाये बैठे हैं।
खम्भा नोच न पाये तो ये जाने क्या कर डालेंगे,
टी०वी०चैनेल पर बिल्ली जैसे खिसियाये बैठे हैं।
टी०वी०चैनेल पर बिल्ली जैसे खिसियाये बैठे हैं।
अपनी-अपनी ढपली पर ये अपना राग अलाप रहे,
गधे ऊँट की शादी में ज्यों साज सजाये बैठे हैं।
गधे ऊँट की शादी में ज्यों साज सजाये बैठे हैं।
एक-दूसरे की करके तारीफ़ बड़े खुश हैं दोनों,
क्या पाया है रूप! आप क्या सुर में गाये बैठे हैं!
क्या पाया है रूप! आप क्या सुर में गाये बैठे हैं!
टका सेर में धर्म बिक रहा टका सेर ईमान यहाँ,
चौपट राजा नगरी में अन्धेर मचाये बैठे हैं।
बड़े मियाँ तो बड़े मियाँ थे छोटे मियाँ सुभान अल्लाह,
पैरों तले जमीन नहीं आकाश उठाये बैठे हैं।
अश्वमेध के घोड़े सा रानी का बेलन घूम रहा,
शेर कर रहे "हुआ हुआ" गीदड़ झल्लाये बैठे हैं।
मुँह सी लेते हैं अपना जब मोहरें लूटी जायें तो,
छाप कोयलों पर पड़ती तो गाल फुलाये बैठे हैं।
'क्रान्त' इन अन्धों के आगे रोये तो दीदे खोओगे,
यहाँ हंस कौओं के आगे शीश झुकाये बैठे हैं।
यहाँ हंस कौओं के आगे शीश झुकाये बैठे हैं।
4 comments:
India's political scenario painted perfectly in this form of poetry....awesome...keep going :)
Siddharth and Alpana
My dear friends!
Kindly read this poem in its updayed form & post your comments here. Thanks,
Dr.'Krant'M.L.Verma
मुहावरों ने व्यक्त कर दी देश की दुर्दशा..
धन्यवाद बन्धु पाण्डेय जी!
हम तो लोहू कि सियाही से ये सब लिखते हैं,
ताकि सोया ये लहू जागे कसम खाने को;
हम किसी जन्म में थे 'चन्द' कभी थे 'बिस्मिल'
देखें कौन आता है यह फर्ज़ बजा लाने को?
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