Wednesday, January 23, 2013

Raj Nath Singh-New BJP Chief


राजनीति की नाथ (नकेल)
                                                           राजनाथ सिंह
                                             
                                               राजनीति में बढ़ रहे, आये दिन अब पाप;
                                               राजनाथ जी! सिंह बन, इसे सम्भालें आप!

                                               नितिन गडकरी ने लिया, निर्णय यकदम ठीक;
                                               सही समय पर छोड़ दी, बी०जे०पी० की  लीक!
       
                                               लीक-लीक गाड़ी चले, लीकहि चले कपूत;
                                               लीक छोड़ तीनों चलें, शायर-सिंह-सपूत!!

                                               अब तक जो भी लोग हैं, सत्ता-मद में चूर;
                                               उन्हें ठिकाने लाइये, समय नहीं है दूर!!
                                       
                                               नमो! नमो! का मन्त्र ही, कर सकता यह काम;
                                               यही आप अपनाइये,  भली करेंगे राम!!

                                               काँग्रेस में 'एक' है, लेकिन यहाँ 'अनेक';
                                               इन्हें लीक पर लाइये, आगे हो बस 'एक'.

                                               कहें 'क्रान्त' तब बनेगी, सन चौदह में बात;
                                               गर ये आपस में लड़े, मलते रहना 'हाथ'!!
                     
                                        नोट: ऊपर दी हुई फोटो http://www.livemint.com/ के सौजन्य से 

Friday, January 11, 2013

No mother will give birth to a poet?

वरना कोई माँ कवि को जन्म नहीं देगी?

कवि के आँसू बरसात अगर बन जाते तो बदली में छुपकर चाँद न सावन में रोता,
भावुकता का प्रतिकार अगर जग दे पाता तो कवि जैसा कोई भी हृदय नहीं होता.

दोपहरी अगर शरीर नहीं झुलसाती तो सुख की चाँदनी थपकियाँ देने क्यों आती?
अस्तित्व बुढ़ापे का जग से मिट जाता तो मासूम जबानी आज किसी को क्यों भाती?

गोदी में पले हुए बचपन की याद करो जो होता है निर्दोष जिसे कुछ चाह नहीं,
वह भोलापन जब आँखों में बस जाता है फिर रहती है मुझको जग की परवाह नहीं.

पर हाय! जगत के कीचड़ तुझमें फँसते ही "मेरा-तेरा" बनकर फितूर छा जाता है,
फिर हो जाता है भोलेपन का सर्वनाश हर ओर द्वेष से पूर्ण विश्व दिखलाता है.

दुनिया में थोड़ी उम्र जिसे मिल जाती है वह सारे जग का शहंशाह बन जाता है,
फिर नहीं समझता है वह यह जग मेरा है या मेरा भी कुछ जग वालों से नाता है.

वाणी के मूक पुजारी धारा में बहकर कुछ लिखने को आते पर कुछ लिख जाते हैं,
उनमें सौन्दर्य-व्यथा अक्सर लग जाती है इसलिये महाकवि बनने से रह जाते हैं.

वैसे तो इस दैवी-प्रदत्त प्रतिभा का कुछ विरले ही जग में सदुपयोग कर पाते हैं,
वरदान उन्ही को सरस्वती माँ देती है जिससे वे अपना नाम अमर कर जाते हैं.

जब होने लगता मानवता का सर्वनाश जब पशुता अपना ताण्डव नृत्य दिखाती है,
तब मधुर लेखनी बन जाती विषधर कटार वाणी माँ सरस्वती काली बन जाती है.

जब दरिद्रता पर होने लगता अनाचार निर्दोष त्रस्त हो हाहाकार मचाते हैं,
तब छोड़ प्रिया की कमल-सेज भावना-पूत जो कवि होते हैं विद्रोही बन जाते हैं.

मंजिल पर जाकर किसको गौरव नहीं मिला सच पर बलि देकर किसने सुयश नहीं पाया,
जिसको न मृत्यु ने अपना ग्रास बनाया हो धरती पर अब तक ऐसा मनुज नहीं आया.

जब मानव को मानव से प्रेम नहीं होगा तो मानवता कैसे जिन्दा रह पायेगी?
जिसकी भावुकता की जग हँसी उड़ाएगा निश्चय उसकी भावना क्रान्त हो जायेगी.

निर्ममता ईर्ष्या अहंकार से दबे हुए मालूम नहीं इस प्राणि मात्र का क्या होगा?
पर यह सच है जिसने जैसा भी किया कर्म परिणाम उसी अनुरूप सदा उसने भोगा.

मैं पुन: कह रहा हूँ कवि के उद्गारों को दिल से समझो फिर उस पर सोच विचार करो,
वरना कोई माँ कवि को जन्म नहीं देगी इसलिये सदा ही कवि का तुम सम्मान करो.

Monday, January 7, 2013

Give me some rights & then see

विश्व दे अधिकार....

विश्व दे अधिकार यदि कवि के मनुज को,
तोड़ दे जंजीर क्या? वह व्यूह शत-शत

दर्प मानव को परे ले जा रहा है,
स्वार्थ से संसार भरता जा रहा है;
आज वैज्ञानिक खिलौना बन गया है,
हो रहा जड़वाद के हाथों हताहत.

विश्व दे अधिकार यदि कवि के मनुज को,
तोड़ दे जंजीर क्या? वह व्यूह शत-शत

वन्य होती जा रही शिक्षित मनुजता,
मुक्त प्राणों में भरी है एक पशुता;
आज जीवन खुद समर्पित हो गया है,
बीतता जाता युगों के साथ सम्वत.

विश्व दे अधिकार यदि कवि के मनुज को,
तोड़ दे जंजीर क्या? वह व्यूह शत-शत

सत्य से सब बिमुख होते जा रहे हैं,
मात्र हिंसा को सभी अपना रहे हैं;
एक हम में क्या? सकल मानव जगत में,
बढ़ रहा वैषम्य प्रतिभा हो रही क्षत.

विश्व दे अधिकार यदि कवि के मनुज को,
तोड़ दे जंजीर क्या? वह व्यूह शत-शत

भोग में आसक्ति बढ़ती जा रही है,
रोग से जन-शक्ति घटती जा रही है;
प्रेत हैं, मानव जिन्हें तुम कह रहे हो,
हैं विकृत मुख, कर्म हैं इनके असंस्कृत.

विश्व दे अधिकार यदि कवि के मनुज को,
तोड़ दे जंजीर क्या? वह व्यूह शत-शत

आज भौतिक रूप मिटता जा रहा है,
बली से कमजोर पिटता जा रहा है;
और महिमाधर जिन्हें तुम कह रहे हो,
मन्दस्मित मुख बना होते न लज्जित.

विश्व दे अधिकार यदि कवि के मनुज को,
तोड़ दे जंजीर क्या? वह व्यूह शत-शत

आज कवि के हाथ में अधिकार दे दो,
ठीक करने को विकृत आचार दे दो;
दिव्य भावों के प्रहारण से बदल दे,
आज का अणुयुग निदाघों से पराश्रित.

विश्व दे अधिकार यदि कवि के मनुज को,
तोड़ दे जंजीर क्या? वह व्यूह शत-शत

नोट:- यह कविता मेरी कृति 'क्रान्तिकी' से ली गयी है. सन १९६५ में लिखी गयी यह कविता क्या आज के हालात पर सटीक नहीं बैठती? पर किया क्या जाये. जिनके पास अधिकार हैं वे कुछ करना नहीं चाहते और जो कुछ करना चाहते हैं उन्हें इस पूँजीवादी व्यवस्था के चलते अधिकार नहीं मिल पाते. यही तो सारा गड़बड़ है.