Wednesday, November 28, 2012

Lamps of Pain (English Translation of वेदना के दीप)

LAMPS OF PAIN

This is the English translation of  premier lyric of my book VEDNA KE DEEP which was published in my another book स्वप्न भ्रंश / DEAD DREAM in 1994 (2nd Edition) from KIMVA PRAKASHAN, NOIDA.

I lit the lamps of uncommon pain.

Morn of your notion had taken away,
The night of dreams towards a dawn.
Laughed my lips having eyes' perception,
That you would not now leave me alone.

But the cruel night launching an arrow,
Roused the agony of my sentiment.
Why did thou touch the sky? tell me,
Leaving my horizon and killing attachment.

Rest is the will to die, no lust,
I have quenched my every thrust.
Void is the oyster and pearls are drain,
I lit the lamps of uncommon pain.

So as to fulfill my accomplishment,
I did continued walking on the way.
But the hurdles always block my track,
And stop the outcoming feeling's ray.

Don't be perplexed of such hinderance,
You are not to get here any repose.
Flow as much as you can, O stream!
You are to get peace in last pose.

O beetle do'nt disclose my distress,
Otherwise there won't be any dawn.
Smearing with tears my every strain,
I lit the lamps of uncommon pain.

Tuesday, November 27, 2012

Vedna Ke Deep (हिन्दी)

वेदना के दीप

वर्ष २००१ में प्रकाशित यह कृति अखिल भारतीय स्तर पर गीत विधा की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक के रूप में चुनी गयी और इस पर २००२ में भवानीप्रसाद मिश्र सम्मान दिया गया.

इस पुस्तक के मुखपृष्ठ पर दिया गया फोटो मेरी धर्मपत्नी का है इस आवरण को मेरी पुत्री अल्पना आदित्य ने बनाया था जो आजकल इण्डिया टुडे ग्रुप में सीनियर डिजाइनर है.

मेरे ब्लॉग के पाठकों की सेवा में इस पुस्तक का आमुख गीत दे रहा हूँ.


मैं जलाता हूँ अनूठी वेदना के दीप

स्वप्न-रजनी को तुम्हारी कल्पना का भोर,
ले उड़ा था एक अद्भुत जागरण की ओर.
हँस पड़े थे ये अधर पाकर नयन-सन्देश,
तोड़कर अस्तित्व जाओगे न तुम परदेश.
पर निठुर नीली निशा ने छोड़कर वह तीर,
फिर बढ़ा दी आज मेरी भावना की पीर.
छोड़कर मेरा क्षितिज क्यों छू लिया आकाश,
धूल के कण में मिला दी एक टूटी आश.
रह गयी बस चाह मिटने की न कुछ अनुराग,
रश्मियों से भर चुका हूँ चाँदनी की माँग.
मोतियों से रिक्त होती जा रही यह सीप,
मैं जलाता हूँ अनूठी वेदना के दीप.

रह न जाये फिर कहीं मेरी अधूरी साध,
शिथिल पैरों को बढ़ाता जा रहा निर्वाध.
किन्तु फिर भी पन्थ पर आता सतत अटकाव,
रोक लेता जो व्यथा के नित्य परिचित भाव.
विघ्न से मत हो विकल तेरा यही परिणाम,
है न पल भर भी तुझे मिलना यहाँ विश्राम.
बह सको जितना बहो हे उर्मियों के नीर,
शान्ति मिलनी है तुम्हें बस एक तट के तीर.
अलि! न कह देना किसी से विवश मन की बात,
अन्यथा होगा न जीवन में सुनहला प्रात.
आँसुओं से आज देहरी-द्वार-आँगन लीप,
मैं जलाता हूँ अनूठी वेदना के दीप.