वेदना के दीप
वर्ष २००१ में प्रकाशित यह कृति अखिल भारतीय स्तर पर गीत विधा की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक के रूप में चुनी गयी और इस पर २००२ में भवानीप्रसाद मिश्र सम्मान दिया गया.
इस पुस्तक के मुखपृष्ठ पर दिया गया फोटो मेरी धर्मपत्नी का है इस आवरण को मेरी पुत्री अल्पना आदित्य ने बनाया था जो आजकल इण्डिया टुडे ग्रुप में सीनियर डिजाइनर है.
मेरे ब्लॉग के पाठकों की सेवा में इस पुस्तक का आमुख गीत दे रहा हूँ.
मैं जलाता हूँ अनूठी वेदना के दीप
स्वप्न-रजनी को तुम्हारी कल्पना का भोर,
ले उड़ा था एक अद्भुत जागरण की ओर.
हँस पड़े थे ये अधर पाकर नयन-सन्देश,
तोड़कर अस्तित्व जाओगे न तुम परदेश.
पर निठुर नीली निशा ने छोड़कर वह तीर,
फिर बढ़ा दी आज मेरी भावना की पीर.
छोड़कर मेरा क्षितिज क्यों छू लिया आकाश,
धूल के कण में मिला दी एक टूटी आश.
रह गयी बस चाह मिटने की न कुछ अनुराग,
रश्मियों से भर चुका हूँ चाँदनी की माँग.
मोतियों से रिक्त होती जा रही यह सीप,
मैं जलाता हूँ अनूठी वेदना के दीप.
रह न जाये फिर कहीं मेरी अधूरी साध,
शिथिल पैरों को बढ़ाता जा रहा निर्वाध.
किन्तु फिर भी पन्थ पर आता सतत अटकाव,
रोक लेता जो व्यथा के नित्य परिचित भाव.
विघ्न से मत हो विकल तेरा यही परिणाम,
है न पल भर भी तुझे मिलना यहाँ विश्राम.
बह सको जितना बहो हे उर्मियों के नीर,
शान्ति मिलनी है तुम्हें बस एक तट के तीर.
अलि! न कह देना किसी से विवश मन की बात,
अन्यथा होगा न जीवन में सुनहला प्रात.
आँसुओं से आज देहरी-द्वार-आँगन लीप,
मैं जलाता हूँ अनूठी वेदना के दीप.
वर्ष २००१ में प्रकाशित यह कृति अखिल भारतीय स्तर पर गीत विधा की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक के रूप में चुनी गयी और इस पर २००२ में भवानीप्रसाद मिश्र सम्मान दिया गया.
इस पुस्तक के मुखपृष्ठ पर दिया गया फोटो मेरी धर्मपत्नी का है इस आवरण को मेरी पुत्री अल्पना आदित्य ने बनाया था जो आजकल इण्डिया टुडे ग्रुप में सीनियर डिजाइनर है.
मेरे ब्लॉग के पाठकों की सेवा में इस पुस्तक का आमुख गीत दे रहा हूँ.
मैं जलाता हूँ अनूठी वेदना के दीप
स्वप्न-रजनी को तुम्हारी कल्पना का भोर,
ले उड़ा था एक अद्भुत जागरण की ओर.
हँस पड़े थे ये अधर पाकर नयन-सन्देश,
तोड़कर अस्तित्व जाओगे न तुम परदेश.
पर निठुर नीली निशा ने छोड़कर वह तीर,
फिर बढ़ा दी आज मेरी भावना की पीर.
छोड़कर मेरा क्षितिज क्यों छू लिया आकाश,
धूल के कण में मिला दी एक टूटी आश.
रह गयी बस चाह मिटने की न कुछ अनुराग,
रश्मियों से भर चुका हूँ चाँदनी की माँग.
मोतियों से रिक्त होती जा रही यह सीप,
मैं जलाता हूँ अनूठी वेदना के दीप.
रह न जाये फिर कहीं मेरी अधूरी साध,
शिथिल पैरों को बढ़ाता जा रहा निर्वाध.
किन्तु फिर भी पन्थ पर आता सतत अटकाव,
रोक लेता जो व्यथा के नित्य परिचित भाव.
विघ्न से मत हो विकल तेरा यही परिणाम,
है न पल भर भी तुझे मिलना यहाँ विश्राम.
बह सको जितना बहो हे उर्मियों के नीर,
शान्ति मिलनी है तुम्हें बस एक तट के तीर.
अलि! न कह देना किसी से विवश मन की बात,
अन्यथा होगा न जीवन में सुनहला प्रात.
आँसुओं से आज देहरी-द्वार-आँगन लीप,
मैं जलाता हूँ अनूठी वेदना के दीप.
3 comments:
वेदना के दीप ही राह गहरी दिखाते हैं।
अभी थोड़ी देर पहले ही किरण दीदी से फोन पर बात हुयी है ! एक महान व्यक्तित्व की आवाज़ सुनने का सौभाग्य मिला ! इस सुन्दर रचना के लिए आपको एवं अल्पना जी को बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं !
प्रवीण जी व दिव्या जी!
आपके सद्विचार पढ़कर प्रेरणा मिली तभी तो इस गीत का अंग्रेजी काव्यानुवाद फ़िलहाल इसी ब्लॉग पर आज ही पोस्ट कर रहा हूँ.
मेरी पोस्ट को अन्य भाषा भाषी भी पढ़ते हैं अत: उनका भी ध्यान रखना पड़ता है इसे अन्यथा न लें. धन्यवाद!
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