विश्व दे अधिकार....
विश्व दे अधिकार यदि कवि के मनुज को,
तोड़ दे जंजीर क्या? वह व्यूह शत-शत
दर्प मानव को परे ले जा रहा है,
स्वार्थ से संसार भरता जा रहा है;
आज वैज्ञानिक खिलौना बन गया है,
हो रहा जड़वाद के हाथों हताहत.
विश्व दे अधिकार यदि कवि के मनुज को,
तोड़ दे जंजीर क्या? वह व्यूह शत-शत
वन्य होती जा रही शिक्षित मनुजता,
मुक्त प्राणों में भरी है एक पशुता;
आज जीवन खुद समर्पित हो गया है,
बीतता जाता युगों के साथ सम्वत.
विश्व दे अधिकार यदि कवि के मनुज को,
तोड़ दे जंजीर क्या? वह व्यूह शत-शत
सत्य से सब बिमुख होते जा रहे हैं,
मात्र हिंसा को सभी अपना रहे हैं;
एक हम में क्या? सकल मानव जगत में,
बढ़ रहा वैषम्य प्रतिभा हो रही क्षत.
विश्व दे अधिकार यदि कवि के मनुज को,
तोड़ दे जंजीर क्या? वह व्यूह शत-शत
भोग में आसक्ति बढ़ती जा रही है,
रोग से जन-शक्ति घटती जा रही है;
प्रेत हैं, मानव जिन्हें तुम कह रहे हो,
हैं विकृत मुख, कर्म हैं इनके असंस्कृत.
विश्व दे अधिकार यदि कवि के मनुज को,
तोड़ दे जंजीर क्या? वह व्यूह शत-शत
आज भौतिक रूप मिटता जा रहा है,
बली से कमजोर पिटता जा रहा है;
और महिमाधर जिन्हें तुम कह रहे हो,
मन्दस्मित मुख बना होते न लज्जित.
विश्व दे अधिकार यदि कवि के मनुज को,
तोड़ दे जंजीर क्या? वह व्यूह शत-शत
आज कवि के हाथ में अधिकार दे दो,
ठीक करने को विकृत आचार दे दो;
दिव्य भावों के प्रहारण से बदल दे,
आज का अणुयुग निदाघों से पराश्रित.
विश्व दे अधिकार यदि कवि के मनुज को,
तोड़ दे जंजीर क्या? वह व्यूह शत-शत
नोट:- यह कविता मेरी कृति 'क्रान्तिकी' से ली गयी है. सन १९६५ में लिखी गयी यह कविता क्या आज के हालात पर सटीक नहीं बैठती? पर किया क्या जाये. जिनके पास अधिकार हैं वे कुछ करना नहीं चाहते और जो कुछ करना चाहते हैं उन्हें इस पूँजीवादी व्यवस्था के चलते अधिकार नहीं मिल पाते. यही तो सारा गड़बड़ है.
विश्व दे अधिकार यदि कवि के मनुज को,
तोड़ दे जंजीर क्या? वह व्यूह शत-शत
दर्प मानव को परे ले जा रहा है,
स्वार्थ से संसार भरता जा रहा है;
आज वैज्ञानिक खिलौना बन गया है,
हो रहा जड़वाद के हाथों हताहत.
विश्व दे अधिकार यदि कवि के मनुज को,
तोड़ दे जंजीर क्या? वह व्यूह शत-शत
वन्य होती जा रही शिक्षित मनुजता,
मुक्त प्राणों में भरी है एक पशुता;
आज जीवन खुद समर्पित हो गया है,
बीतता जाता युगों के साथ सम्वत.
विश्व दे अधिकार यदि कवि के मनुज को,
तोड़ दे जंजीर क्या? वह व्यूह शत-शत
सत्य से सब बिमुख होते जा रहे हैं,
मात्र हिंसा को सभी अपना रहे हैं;
एक हम में क्या? सकल मानव जगत में,
बढ़ रहा वैषम्य प्रतिभा हो रही क्षत.
विश्व दे अधिकार यदि कवि के मनुज को,
तोड़ दे जंजीर क्या? वह व्यूह शत-शत
भोग में आसक्ति बढ़ती जा रही है,
रोग से जन-शक्ति घटती जा रही है;
प्रेत हैं, मानव जिन्हें तुम कह रहे हो,
हैं विकृत मुख, कर्म हैं इनके असंस्कृत.
विश्व दे अधिकार यदि कवि के मनुज को,
तोड़ दे जंजीर क्या? वह व्यूह शत-शत
आज भौतिक रूप मिटता जा रहा है,
बली से कमजोर पिटता जा रहा है;
और महिमाधर जिन्हें तुम कह रहे हो,
मन्दस्मित मुख बना होते न लज्जित.
विश्व दे अधिकार यदि कवि के मनुज को,
तोड़ दे जंजीर क्या? वह व्यूह शत-शत
आज कवि के हाथ में अधिकार दे दो,
ठीक करने को विकृत आचार दे दो;
दिव्य भावों के प्रहारण से बदल दे,
आज का अणुयुग निदाघों से पराश्रित.
विश्व दे अधिकार यदि कवि के मनुज को,
तोड़ दे जंजीर क्या? वह व्यूह शत-शत
नोट:- यह कविता मेरी कृति 'क्रान्तिकी' से ली गयी है. सन १९६५ में लिखी गयी यह कविता क्या आज के हालात पर सटीक नहीं बैठती? पर किया क्या जाये. जिनके पास अधिकार हैं वे कुछ करना नहीं चाहते और जो कुछ करना चाहते हैं उन्हें इस पूँजीवादी व्यवस्था के चलते अधिकार नहीं मिल पाते. यही तो सारा गड़बड़ है.
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