Saturday, November 30, 2013

Narendra Modi V/S A.B.Vajpayee


नरेन्द्र मोदी बनाम अटल बिहारी वाजपेयी

भारतवर्ष पर अंग्रेजों का साम्राज्य कई शताब्दियों तक रहा. यहाँ की जनता पर जो अमानुषिक अत्याचार अंग्रेज सरकार ने किये उनसे इतिहास भरा पड़ा है. सबसे पहले सन १७६४ में बंगाल सेना के अन्दर विद्रोह हुआ जिसमें हिन्दुस्तानी सैनिकों ने फौज़ी नियमों को मानने से मना कर दिया और हड़ताल कर दी. मेजर मनरो को इस विद्रोह को दबाने के लिये विलायत से हिन्दुस्तान भेजा गया. उसने सैनिक कार्रवाई करके इस विद्रोह को दबाया. कैप्टन क्रम द्वारा लिखित 'ब्रिटिश आर्मी' पुस्तक में इसका उल्लेख मिलता है.

इसके पश्चात बंगाल आर्मी की १५ वीं बटालियन में ३ दिसम्बर १७९५ को विद्रोह भड़का जिसके अगुआ थे रघुनाथसिंह उमराव गिरि और यूसुफ़ खाँ. दोनों का कोर्ट मार्शल हुआ और सजा के तौर पर उन दोनों को तोप के मुँह से बाँधकर उड़ा दिया गया. इस घटना का उल्लेख कलकत्ता गज़ट के दूसरे खण्ड में मिलता है. इसी प्रकार १८०६ में 'मद्रास आर्मी' द्वारा बग़ावत की गयी जिसे 'बिल्लौर दुर्ग का विद्रोह' के नाम से इतिहास में लिखा गया. इसके परिणामस्वरूप ब्रिटिश शासकों ने लार्ड बिलियम बैंटिक को पद से बर्खास्त कर दिया.

२१ सितम्बर १८५५ को हैदराबाद के निज़ाम की घुड़सवार सेना (थर्ड कैविलरी) ने विद्रोह किया, ब्रिगेडियर मकेंजी का घर लूट लिया और उसे बुरी तरह मार-मारकर घायल कर दिया. १८५७ में चर्बी चढ़े कारतूसों को लेने से मना करते हुए बैरकपुर छावनी में मंगल पाण्डेय नामक एक हिन्दुस्तानी सिपाही ने राइफल उठा ली और गिरफ़्तारी का आदेश देने वाले मेजर ह्यूसन को गोली से उड़ा दिया. इसके बाद पूरे देश में क्रान्ति लपटें उठीं जिन्हें हम 'सन १८५७ के प्रथम स्वातन्त्र्य समर' के नाम से जानते हैं.

१८६० में केशवचन्द्र सेन ने धार्मिक पुनरुत्थान से जनता में जागृति पैदा की तो १८७५ में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की. यह वही दयानन्द थे जिन्होंने हरिद्वार के कुम्भ-मेले में महारानी लक्ष्मीबाई, बाबू कुँवरसिंह, नानासाहब व अजीमुल्ला खाँ आदि को स्वतन्त्रता संग्राम में आर्थिक सहायता और आशीर्वाद दिया था.

अंग्रेजों ने जब देखा कि हिन्दुस्तान में क्रान्ति के प्रेशरकुकर की भाप कुछ ज्यादा ही बनने लगी है और इसके परिणामस्वरूप कभी भी बड़ा भयंकर विस्फोट हो सकता है तो उन्होंने सन १८८५ में एलेन आक्टोवियन ह्यूम के माध्यम से जो एक रिटायर्ड आईसीएस अधिकारी था अर्जीदिह्न्द (प्रार्थनापत्र देने वाली) संस्था के रूप में काँग्रेस पार्टी का गठन किया. काँग्रेस पार्टी का मुख्य उद्देश्य था पूरे हिन्दुस्तान में क्रान्ति की ज्वाला को ठण्डा रखना और ब्रिटिश सरकार के लिये एक प्रकार से 'सेफ्टी वाल्व' का काम करना.

उन्नीसवीं सदी के अन्तिम चरण में स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका के शिकागो शहर में 'हिन्दू धर्म' की श्रेष्ठता को दुनिया के सामने खुली चुनौती की तरह पेश करके तहलका मचा दिया था. ब्रिटिश उपनिवेशवाद में 'हिन्दुत्व' की एक नई लहर हिलोरें मारने लगी.

बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में श्यामजी कृष्ण वर्मा ने लन्दन में 'इन्डियन होम रूल सोसाइटी' की स्थापना की. बाद में विनायक दामोदर सावरकर ने इन्हीं वर्माजी के साथ मिलकर इंग्लैण्ड में 'भारत भवन' खड़ा किया और 'ऐ शहीदो!' तथा 'घोर चेतावनी' शीर्षक से दो पर्चे छपवाकर सार्वजनिक रूप से बाँटने का दुस्साहस किया. उधर यह हो रहा था इधर हिन्दुस्तान में जगह-जगह 'अनुशीलन समितियाँ' गठित हो गयीं थीं. 'युगान्तर', 'संध्या', 'वन्दे मातरम' और 'न्यू इण्डिया' जैसे अखबार ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ आग उगल रहे थे.

इतना ही नहीं, काँग्रेस में भी राष्ट्रवादी देशभक्तों ने घुसपैठ करके बड़े-बड़े पदों पर अपना कब्जा कर लिया था. लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने 'केसरी' अखबार निकाला और वे काँग्रेस में इन क्रांतिकारियों के अगुआ बने.
उधर दक्षिणी अफ्रीका से मोहनदास करमचन्द गान्धी जैसे सूटेड बूटेड वकील को एक कूटनीतिक साजिश के
तहत 'महात्मा' के वेष में भेजकर दूसरे 'सेफ्टी वाल्व' की व्यवस्था करने में जरा भी देर नहीं लगायी. गान्धी ने आते ही काँग्रेस के लिये जोर-शोर से प्रचार करने का काम 'यंग इण्डिया' अखबार के माध्यम से शुरू किया.

दुर्भाग्य से तिलक चल बसे और काँग्रेस में गान्धीजी का वर्चस्व स्थापित हो गया. १९२०-२१ में इन्हीं गान्धीजी ने असहयोग आन्दोलन की शुरुआत की और जनता को 'सिविल नाफरमानी' का हुक्म दिया. इस हुक्म की तामील बड़ी भयंकर हुई और पुलिस गोलीकाण्ड में मरे किसानों की प्रतिक्रियास्वरूप क्रुद्ध ग्रामीणों ने चौरीचौरा का पूरा थाना ही फूँक दिया. गान्धी ने घबराहट में असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया.इससे पूरे देश के आम नवजवानों में आक्रोश का सैलाव उमड़ पड़ा.

जो अमीर लोग थे उन्होंने मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में अपनी अलग स्वराज पार्टी बना ली और पैसे के दम पर
चुनाव में कुछ सीटें भी जीत लीं परन्तु आम आदमी ने अपने को इन स्वयंभू नेताओं से ठगा हुआ महसूस किया.उन्होंने शाहजहाँपुर जाकर रामप्रसाद 'बिस्मिल' से बात की और उनसे नेतृत्व सम्हालने का आग्रह किया. बिस्मिल ने बंगाल के कुछ क्रान्तिकारियों के सहयोग से हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन के नाम से वाकायदा एक क्रान्तिकारी पार्टी बनायी और १ जनवरी १९२५ को ४ पेज का घोषणा-पत्र अंग्रेजी में छपवाकर रातोंरात समूचे हिन्दुस्तान के ५६ जिलों में मुख्य-मुख्य स्थानों पर भिजवा दिया.

सरकार इससे चौकन्नी हो गयी. उधर उसने बंगाल में खोजबीन शुरू की इधर बिस्मिल ने लखनऊ से बीस मील दूर काकोरी स्टेशन पर ट्रेन रोककर सरकारी खजाना लूट लिया. सरकार ने इस चुनौती को गम्भीरता से लिया और ख़ुफ़िया पुलिस का जाल बिछाकर चालीस क्रान्तिकारियों को गिरफ़्तार कर फटाफट मुकदमा चलाया और बिस्मिल सहित चार को फाँसी दे दी और उससे चार गुने यानी सोलह को चार साल से लेकर चौदह साल के आजीवन कारावास की सजा भुगतने जेलों में ठूँस दिया. इसके बाद क्रान्ति की जो सुनामी आयी उसने बीस साल के भीतर ही इस देश को स्वतन्त्रता दिला दी.

परन्तु व्यवस्था जस की तस रही. वही ३४७३५ अंग्रेजी कानून आज तक चले आ रहे हैं. एक उम्मीद १९७७ में बँधी जब जनता पार्टी सत्ता में आयी थी. परन्तु उसमें भी कई दलों का कुनबा था. सरकार ढाई साल चलकर ढह गयी. फिर दूसरा समय तब आया जब अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी उसने कई दलों की मिलीजुली सरकार चलाई परन्तु मजा नहीं आया. हालांकि अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमन्त्री थे और एपीजे अब्दुल कलाम राष्ट्रपति. दोनों ही कुँवारे और दोनों ही बेदाग़ व बेजोड़. परन्तु माननीय रज्जू भैया की इच्छानुसार वाजपेयी जी भी कार्य नहीं कर सके.

रज्जू भैया ने एक इंटरव्यू के दौरान मुझे बताया था कि नई दिल्ली के इण्डिया गेट पर ठीक वैसा ही स्मारक बनना चाहिये जैसा तुर्की में कमाल पाशा ने बनवाया था. अब भाजपा नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में अगली लोक सभा का चुनाव लड़ेगी जिसमें मोदी की सम्भावना तो बहुत है. पर क्या नरेन्द्र मोदी माननीय रज्जू भैया की उस इच्छा को पूरा कर पायेंगे?.....


मित्रो यह चित्र उस राष्ट्रीय स्मारक का है जिसे कमाल पाशा ने सन १९२८ में तुर्की में बनवाया था इसे मैंने विकिकामंस के सौजन्य से यहाँ दिया है. उसका लिंक है:
http://commons.wikimedia.org/wiki/File:Cumhuriyet_Aniti.JPG




2 comments:

KRANT M.L.Verma said...

19 दिसम्बर 1996 को मेरी पुस्तक "सरफरोशी की तमन्ना" के विमोचन में रज्जू भैया आये थे यह चित्र तभी का है. बाद में मैं उनसे एक दो बार मिला और अटल बिहारी वाजपेयी जी की सरकार के तौर तरीकों पर चर्चा हुई.

वे इस बात से बड़े दुखी थे कि क्रान्तिकारी 'बिस्मिल' के नाम पर इस देश में कोई भव्य स्मारक हमारे नेता लोग नहीं बना सके। उन्होंने कहा था: "लच्छेदार भाषण देकर अपनी छवि को निखारने के लिये तालियाँ बटोर लेना अलग बात है, नेपथ्य में रहकर दूसरों के लिये कुछ करना अलग बात है।" उनका इशारा अटलजी की ओर था.

रज्जू भैया की यह बात मेरे दिल को छू गयी. तब से मैं नेपथ्य में रहकर क्रांतिकारियों को प्रकाश में लाने का कार्य कर रहा हूँ.

निर्झर'नीर said...

desh ke utthan ,samaj ko roshani or aane vali pidhi ke margdarshan ke liye aap jaise vyaktitav par hi sabki nigaahen tiki hui hai ..