बकौल खत्री जी जब हम लोग पगडण्डी पर जा रहे थे सहसा सामने से एक पुलिस का गश्ती दल आता दिखायी पड़ा. पण्डित जी (रामप्रसाद बिस्मिल) ने तत्काल सभी साथियों को खेत में छिप जाने का आदेश दिया और खुद पगडण्डी पर बुत की तरह खड़े हो गये. न हिले न डुले. हम सबको आश्चर्य हो रहा था कि अब क्या होगा पण्डित जी अकेले खड़े हैं और सामने से आने वाले गश्ती दल में पता नहीं कितने पुलिस वाले होंगे? खैर, हम सभी साथी साँस रोककर अपने-अपने हथियार सम्हाले हुए पूरी तौर पर सतर्क होकर लेट गये.
तभी गश्ती दल पास आया. पण्डित जी एक दम बुत की तरह खड़े रहे न हिले न डुले और न ही आँखों की पलक झपकने दी. पुलिस इन्सपेक्टर ने उनसे एक फुट के फासले पर जायजा लिया कि देखें तो यह बला क्या है जो चुपचाप खड़ी हुई है और कोई हरकत भी नहीं कर रही. यहाँ तक अपनी पलक भी नहीं झपका रही. इन्सपेक्टर ने किताबों में हिन्दुस्तानी भूतों की कहानियाँ पढ़ी हुई थीं. सहसा उसे लगा कि हो न हो यह कोई भूत है जो आज यहाँ मेरा रास्ता रोककर खड़ा हुआ है. क्योंकि अगर यह आदमी होता तो रास्ते से हट जाता और अगर चोर होता तो भाग खड़ा होता. वह अभी असमंजस में ही था कि पण्डित जी ने बायें हाथ से खोपड़ी पकड़कर उस इन्सपेक्टर की गर्दन इतनी बुरी तरह मरोड़ी कि वह "भूत! भूत!" कहकर उल्टे पाँव वहाँ से भाग लिया. उसकी देखा-देखी बाकी सिपाही भी उसके पीछे-पीछे हाँफते हुए दौड़ लिये.
पण्डित जी की बहादुरी से हम सब हैरान रह गये. रास्ते में पण्डित जी ने हम लोगों से हँसते हुए कहा - "देखा ये पुलिस वाले कितने बहादुर होते हैं जो आदमी तो आदमी भूत से भी इतना ज्यादा डरते हैं!"
दूसरा किस्सा खत्री जी ने लखनऊ जेल का सुनाया. 195 एकड़ में बनी हुई यह खुली जेल हुआ करती थी जिसके जेलर उन दिनों चम्पालाल जी थे. जेल में हम सभी क्रान्तिकारियों को पूरी आज़ादी थी. जेल की बैरक नं० ग्यारह में हम सभी क्रांतिकारियों को रखा गया था. सुबह का वक़्त था हम लोग अखबार पढ़ रहे थे. अखबार में एक खबर छपी थी कलयुगी भीम प्रो० राममूर्ति का ऐलान - "सरकार गौकसी बन्द कर दे तो वे रेल का इंजन रोक कर दिखा देंगे". उन दिनों प्रो० राममूर्ति जिनका पूरा नाम कोडी राममूर्ति नायडू था, हिन्दुस्तान के एक ऐसे महाबली पहलवान थे जिनकी धाक पूरे संसार में थी. मोटर गाड़ियों को रोकने का करिश्मा वे देश-विदेश में कई जगह कर चुके थे. कलयुगी भीम की उपाधि उन्हें किसी और ने नहीं वरन खुद ब्रिटिश सरकार ने दी हुई थी.
अखबार पढ़कर हम लोग आपस में बहस करने लगे. यह सब बकवास है कहाँ गाड़ी का इंजन और कहाँ एक आदमी! यह कैसे सम्भव हो सकता है? इतने में शायद मन्मथनाथ गुप्त ने मजाक में कह दिया मोटर गाड़ी रोकने की खबर अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान की भोली-भाली जनता का ध्यान बँटाने के लिये अखबार में छाप दी है इसमें कोई सच्चाई थोड़े ही है. हम सब उनकी बात सुनकर हाँ में हाँ मिलाने लगे. तभी पण्डित जी उठे और हम सबको बताने लगे- "आप लोगों ने प्रो० राममूर्ति को देखा नहीं है, मैंने देखा है जब वे खण्डवा (म०प्र०) आये थे. वे बली नहीं महाबली हैं. उनके लिये मोटर गाड़ी रोक देना बायें हाथ का खेल है." हमने भी उत्सुकता वश पण्डित जी से प्रश्न किया-"यह कैसे सम्भव है?' उन्होंने उत्तर दिया - "योगबल से सब कुछ सम्भव है."
इतने में शचीन्द्रनाथ सान्याल बोल उठे- "तब तो पण्डित जी आप भी रोक देंगे. आप भी तो रोजाना योग करते हैं. क्यों पण्डित जी?" पण्डित जी हँसे और बोले - "हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े-लिखे को फ़ारसी क्या?"
"हाँ भाई हाँ!" किसी ने पीछे से फिकरा कसा. दूसरा बोला- "और अपने पण्डित जी तो उर्दू-फ़ारसी भी जानते हैं. गाड़ी मँगा लो. देखते हैं रोक पाते हैं कि नहीं." इतने में पुलिस की एक बहुत बड़ी ट्रकनुमा लारी आ गयी.
पण्डित जी हँसे और बँगला में बोले - "दादा! परीक्षा मत लो किरकिरी हो जायेगी!" सचिन दा भी कम नहीं थे बोल पड़े- "यह कोई मामूली लारी नहीं, ६४ हार्सपावर का फोर व्हील ड्राइव ट्रक है. क्या समझे पण्डित जी! बाजू उखड़ के बाहर आ जायेंगे." देखा जाये तो सचिन दा ने एक तरह से खुला चैलेन्ज ही दे दिया था रामप्रसाद बिस्मिल जैसे एक ऐसे क्रान्तिकारी को जो पहले से ही ब्रिटिश साम्राज्य को खुली चुनौती दे चुका था.
काफी बहस के बाद तय किया गया कि ड्राइवर को कहा जाय कि वह लारी स्टार्ट करे और पण्डित जी रोक कर दिखाएँगे! इस पर पण्डित जी बोले मेरी भी एक शर्त है- "आप सब लोग लारी में बैठ जायेंगे. मैदान में कोई एक भी नहीं रहेगा वरना दादा का कोई भरोसा नहीं ये कह देंगे सारे यू०पी० वालों ने रामप्रसाद को सहारा दे दिया होगा. वरना अकेले कोई इतनी बड़ी लारी रोक कर क्या अपने अस्थिपंजर ढीले करायेगा?"
खत्री जी ने आगे जो कहानी बतायी वह स्तब्ध कर देने वाली थी. "लारी बीचोंबीच मैदान में खड़ी की गयी. हम सभी क्रांतिकारियों को उसमें बैठाया गया. ६ नम्बर का कैदी मैं था मैं सबसे बाद में इसलिये बैठा कि कहीं कुछ अनहोनी हुई तो फटाक से कूदकर पण्डित जी को बचा लूँगा. क्योंकि इन दादा लोगों का क्या भरोसा? ये पहले पेड़ पर चढ़ा देते हैं फिर उसका तना काटने लगते हैं.
पण्डित जी ने पहले हुड में रस्से को खूब मजबूती से बाँधा फिर उसे अच्छी तरह चेक किया कि कहीं टूटेगा तो नहीं. उसके बाद अखाड़े की मिट्टी अपने दोनों हाथों में मली जिससे पकड़ ढीली न हो जाये, मातृभूमि की थोड़ी सी रज लेकर माथे से लगायी और परमात्मा का स्मरण करके रस्सा पकड़ लिया. पण्डित जी साँस रोककर खड़े हो गये. ड्राइवर ने भी लारी स्टार्ट की और पूरी ताकत से एक्सेलेटर दबा दिया. खत्री जी बताया- "हम सभी के आश्चर्य का कोई ठिकाना ही न रहा जब लारी के चारो पहिये धूल फेंकने लगे और लारी अपनी जगह से एक इंच भी टस से मस न हुई. इतने बलवान थे पण्डित जी! आह! ऐसे नवजवान अब इस लोक में दुबारा कहाँ देखने को मिलेंगे?"
इतना कहकर खत्री जी की आँखें भर आयीं. मैं भी सोचने लगा परमात्मा भी कितना विचित्र है! कैसे-कैसे खेल रचाता रहता है! उसने यह देखने को मुझे ही लखनऊ भेज दिया कि जाओ और अपने साथियों के विचार जानो, वे कैसा सोचते हैं .......