यह कैसी दीवाली है?
अँधेरों की भुजाओं ने पकड़ रक्खी भुजाली है,
समझ में यह नहीं आता कि यह कैसी दीवाली है?
पड़ेगा किस तरह बोलो हमारे सोच में अन्तर,
कि पढ़-लिखकर भी जब अबतक हमारा बोल गाली है.
तिरंगा सोच में डूबा, उसे यह सोच ले डूबा;
गगन में किस तरह फहरे कि जब कश्मीर खाली है.
हमें जब ख्बाव होता है, तभी पंजाब रोता है;
असम ने आँसुओं की धार आँखों में छुपा ली है.
वतन खुशहाल है अपना, ये मन टकसाल है अपना;
जरूरत के मुताबिक कर्ज की चादर बढ़ा ली है.
उन्हें है धर्म से नफरत, हमारी धर्म में शिरकत;
यही तो आंकड़ा ३६ का दोनों में सवाली है.
बयालिस* की मशालें जिसने पच्चिस** में जलायीं थीं,
भुला उसको अहिंसा ने शराफत बेच डाली है.
दशानन की तरह मूरख नहीं जो टालते जायें,
अभी से स्विस स्थित स्वर्ग तक सीढ़ी बना ली है.
हमें मौका मिला है हम भी दीवाली मनायेंगे,
दिवाला देश का निकले हमारे घर दिवाली है.
*भारत छोड़ो आन्दोलन(१९४२) **काकोरी-काण्ड(१९२५)
1 comment:
.
हमें मौका मिला है हम भी दीवाली मनायेंगे,
दिवाला देश का निकले हमारे घर दिवाली है...
इस ओजस्वी कविता के लिए आपकी लेखनी को नमन।
वन्देमातरम !
.
Post a Comment