Thursday, May 31, 2012

Human's Cry

मानवता की पुकार

"अब धरा पर धर्म कम होने लगा
 न्याय का क्रिया-करम होने लगा

ताक पर रख दी गयी है सभ्यता
आदमी अब बेशरम होने लगा

जंगे-आज़ादी की क्या कीमत रही
अब तो आज़ादी का ग़म होने लगा

हमने देखा है न देखा जायेगा
सामने जुल्मो-सितम होने लगा

 'क्रान्त' हे भगवान! तू खामोश है
 तेरी गीता का भरम होने लगा"

नोट: उपरोक्त गज़ल मेरी पुस्तक "धूप के आइने" से है यह पुस्तक सन १९८० में प्रकाशित हुई थी

Review of Maati Ki Mahak (Book)

माटी की महक : एक समीक्षा
 
"भीड़ की आँखें" लेकर "नीम,पीपल और बरगद के शहर" घूमते हुए "जातक काव्य माला" पिरोकर "माटी की महक" से हिन्दी काव्य जगत में श्रीवृद्धि करने का जो स्तुत्य प्रयास प्रोफेसर लल्लन प्रसाद जी ने किया है उसकी यदि सोंधी-सोंधी समीक्षा न की जाये तो यह धृष्टता ही कही जायेगी
 
प्रसाद जी की तीनों ही कृतियाँ मेरे पास हैं आज ही यह चौथी कृति प्राप्त हुई है. मुझसे पहले मेरी पत्नी ने पूरी पुस्तक पढ़ डाली. वे स्वयं भी एक विदुषी महिला हैं उनकी जो प्रतिक्रिया थी सबसे पहले बात उसी से क्यों न की जाये.
 
बकौल उनके कृतिकार में आयु की परिपक्वता के साथ चिन्तन भी है और चिन्ता भी. चिन्तन यह कि भौतिक विकास की आपाधापी में हम कहाँ से कहाँ पहुँच गये और चिन्ता यह कि सब कुछ इसी तरह परिवर्तित होता गया तो आगे क्या होगा?
 
अपनी अर्द्धांगिनी की बात को काटने का न तो मैं कोई प्रयास ही करूँगा और न ही इसकी यहाँ पर कोई आवश्यकता भी है. बहरहाल सीधे-सीधे कृति पर आया जाये.
 
लगभग ८८ पृष्ठ की पुस्तक में कुल ४६ कविताएँ हैं अन्त की हाइकू कविताओं को छोडकर. जिन पाँच तत्वों से मिलकर यह मानव शारीर बना है उनमें धरती या मिट्टी का तत्व प्रमुख है. प्रसाद जी का सम्पूर्ण चिन्तन मिट्टी को खोती जा रही खुश्बू को लेकर है जो इस कृति की कमोवेश सभी कविताओं में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है.
 
जीवन यात्रा शीर्षक से लिखी पहली कविता की ये पंक्तियाँ देखें:
"पूरी यात्रा में/ जो दिया जो किया/ वही पाया/ काँटे बोये पाँव चुभोये/ खुश्बू बाँटी/यश पाया/ खाली हाथ आया/ खाली हाथ गया."
 
पूरब-पश्चिम कविता में आयातित अन्धानुकरण पर उनकी सोच ने सीधा-सीधा समीकरण ही खोज निकाला. आप भी रू-ब-रू होइए: 
"पूरब में पश्चिम की पाँव पसारती उपभोक्ता संस्कृति/ और पश्चिम में भारत का योग/ नई जीवन -शैली का संयोग!"
 
परिवर्तन की आँधी से स्वयं को कैसे बचाया जाये इसका यदि आपको थोड़ा-सा भी दर्द है तो प्रसाद जी की सद्य:प्रकाशित कृति "माटी की महक" अवश्य पढ़िये मेरा विश्वास है आपका वह दर्द कुछ कम होगा.
 
अभी फ़िलहाल इतना ही....
 
* डॉ. मदनलाल वर्मा 'क्रान्त'
समीक्षित कृति: माटी की महक प्रो० लल्लन प्रसाद साहित्य प्रकाशन दिल्ली मूल्य १७५ रूपये  

Saturday, May 26, 2012

Seven sixes in One Over (1 no ball)

एक ओवर में सात छक्के
             (एक नो बाल पर )

पहला

खुद मनमोहन सिंह भी रहे नहीँ बेदाग़
जाते-जाते लग गया उनकी छबि को दाग़
उनकी छबि को दाग़ स्वयं प्रस्ताव न लाते
और न उसको जोड़-तोड़ कर पास कराते
कहें 'क्रान्त' अपने पाले में बुला दुशासन
अपना चीरहरण करवाये खुद मनमोहन 

दूसरा 

सत्ता का यह स्वाद है सचमुच बड़ा विचित्र
इसमें आकर सन्त भी रहता नहीं पवित्र 
रहता नहीं पवित्र समझ में अब यह आया
मनमोहन सा ज्ञानी भी जब चक्कर खाया
कहें 'क्रान्त' यह पहले ही से हमे पता था
कठपुतली के पीछे है धागा सत्ता का

तीसरा

धागा इनमें कौन है कठपुतली है कौन?
जनता सब कुछ जानती हम बिल्कुल हैं मौन
हम बिल्कुल हैं मौन मीडिया को कहने दो
जनता को यह कष्ट अकेले ही सहने दो
कहें 'क्रान्त' यदि भाग्य देश का अबकी जागा
तो जनता ही तोड़ेगी सत्ता का धागा.

चौथा

खुले खजाने लुट रही लोकतन्त्र की लाज
अरबों की सम्पत्ति है स्विस बैंक में आज  
स्विस बैंक में आज  वही जनतन्त्र चलाते
आम आदमी को महँगाई से मरवाते
कहें 'क्रान्त' उस प्रजातन्त्र के हैं क्या माने?
जनता का धन लूटा जाये खुले खजाने

पाँचवाँ

सत्ताइस में लिख गये बिस्मिल* जी यह बात
आजादी यदि मिल गयी हमको रातों-रात
हमको रातों-रात राज ऐसा आयेगा
जिसमें केवल पूँजीवाद पनप पायेगा
कहें 'क्रान्त' फिर रोज पिसेगी जनता इसमें
बिस्मिल जी यह बात लिख गये सत्ताइस में

*रामप्रसाद 'बिस्मिल' (१९२७ में फाँसी से ३ दिन पूर्व)

छठा

जनता यदि यह चाहती हो जीवन आसान
तो चुनाव में वह करे शत-प्रतिशत मतदान
शत-प्रतिशत मतदान करे संकल्प अभी से
बीजेपी या कांग्रेस को चुन ले जी से
कहें 'क्रान्त' दो दल की हो संसद में सत्ता
लग्गू-भग्गू-पिछलग्गू को चुने न जनता

सातवाँ

साँप - नेवला - मोर हैं एक साथ एकत्र
लोकतन्त्र को कर रहे मिलकर ये अपवित्र
मिलकर ये अपवित्र रात को मिलकर खाते
दिन को हमको हाथी जैसे दाँत दिखाते
कहें 'क्रान्त' कब टूटेगी यह स्वर्ण-शृंखला
कब तक और डसेंगे हमको साँप नेवला?


नोट: मित्रो! ये सातो कुण्डली २१ जुलाई २००८ को डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा स्वयं अपनी ही सरकार के पक्ष में प्रस्ताव लाने तथा अगले ही दिन २२ जुलाई २००८ को उसे पास कराने में हुई नौटंकी से आहत होकर मैंने लिखी थीं ये सातो कुण्डली नोएडा से चेतना मंच में यथावत प्रकाशित हुई थीं. जनता की याददाश्त बड़ी कमजोर होती है अत: इन्हें यहाँ ब्लॉग पर अप्लोड किया जा रहा है.



Tuesday, May 22, 2012

Rhymes of Emergency (Hindi)

आपातकालीन गजलें

(एक)

किस कदर आज लोग डरते हैं
बात चुपचाप घर में करते हैं

क्या पता कौन कब कहाँ धर ले 
रास्तों से भी कम गुजरते हैं

प्रेस पर लग गयी है सेंसरशिप
लोग सच बात को तरसते हैं

हुक्मरानों से मिल नहीं सकते 
अर्दली तक हमें डपटते हैं

ऐसे हालात में वो बेहतर हैं
जी-हजूरी जो खूब करते हैं

(दो)

तुम उजाले की बात करते हो
सारे घर में अभी अँधेरा है

कैद कबसे हैं चाँद औ सूरज
सिर्फ तारोँ का अब बसेरा है

शेष बस रह गयी है खामोशी
इस कदर बेबसी ने घेरा है

आज स्याही से पुत गया यारो
कैसे कह दूँ कि कल सुनहरा है

गूँगी-गूँगी उदास बस्ती में
आदमी मुद्दतों से बहरा है

(तीन)

बेरहम पीली-पीली वर्दी में
अपना कोई नजर नहीं आता

लाठियों का हुजूम होता है 
आदमी ही नजर नहीं आता 

लाल टोपी का खौफ इतना है
कोई भाई नजर नहीं आता 

सबको एस०पी० बना के छोड़ा है
अब सिपाही नजर नहीं आता 

साफ सड़कें सपाट चौराहे
कोई राही नजर नहीं आता 

(चार) 

इस कदर छा गयी है खामोशी
मुल्क को भा गयी है खामोशी

सरफरोशी की बात करते हो
जिस्म को खा गयी है खामोशी

चोट खाकर भी कुछ नहीं बोले
घाव सहला गयी है खामोशी

अब तो अहसास भी नहीं होता
दिल को बहला गयी है खामोशी

चापलूसों की भीड़ में आकर
हमको भी भा गयी है खामोशी

(पाँच)

कुर्सियाँ बरकरार रखने को
भाड़ में झोंक दी है आबादी

इसको बेहतर कहें या हम बदतर
मुल्क पर छा गयी है बरबादी

सारा इंसाफ ताक पर रखकर
वेगुनाहों पे तोहमतें लादी 

या इलाही! जमात लगता है
जुल्म सहने की हो गयी आदी

जाने कब इन्कलाब आयेगा 
जाने फिर कब मिलेगी आजादी

नोट: मैंने ये गजलें आपातकाल के दौरान लिखी थीं। इनका अंग्रेजी अनुवाद करके स्व० लक्ष्मीमल सिंघवी को भेजा था। आज भी लगभग वैसे ही हालात दिखायी दे रहे हैं। यह सरकार कुर्सी बचाने के लिये कुछ भी कर सकती है अत: समय रहते सावधान रहने की आवश्यकता है।




Monday, May 21, 2012

Rhymes of Emergency

RHYMES OF EMERGENCY

(1)

How the people are frightened today,
Hardly they whisper at home about sway.

Even God can't say-who,when and where,
Holds them hence they seldom go away.

Censorship has been thrust upon press,
Facts are totally banned now-a-day.

You can't meet the bosses in office,
To their attendants until something you pay.

They are keeping up for better,
"Yes Madam!" "Yes Madam!" only who say.

(2)

How you talk of light, it's dark,
Truth can never be put into ark.

Suns and Moons are held behind,
The bars and stars are enjoying the lark.

The taciturn weather is everywhere,
Nobody dares to pass any remark.

How can I say tomarrow will be bright,
While our today is blackend stark.

In this dumb and cheerless dwelling,
Deaf is the man as he can not hark.

(3)

In this cruel clad uniform yellowish,
None seems me to be kind to us.

Here, there, else and everywhere,
Clubs and clubs are seen in focus.

Such is the terror of autopatrollers,
Neither you can talk nor freely discuss.

Even the Constable pokes as S.P.
Rank and file don't exist thus.

Roads are clear and crossings bare,
Ever busy markets don't gather rush.

(4)

Here, there and everywhere is a hush,
Whole of country is hemmed into hush.

You are talking to sacrifice head,
Body from within is tritened by hush.

After being hurt they did not cry,
Perhaps their wounds are healed by hush.

It does'nt let them feel anything,
It seems their hearts are cooled in a hush.

Seeing myself alone in the masses,
I too myself is to keep in a hush.

(5)

In order to keep them sit for ever,
Populace is cruelly thrown into oven.

Should I say rather best or worst,
Country is totally spoiled and trodden.

Keeping all away the law and justice.
Innocents are badly beaten and broken.

O my God! the masses has become,
A pony's back who is badly loaden.

God knows when the revolt will recur,
And freedom be restored to men & women.


Note: These ryhmes were written by me when the emergency was imposed in India by the then Prime Minister Mrs Indira Gandhi. While it was not necessory at all. Any way, the country saw its consequences. I am seeing the same situations again in the universe. Be prepared for that.



Sunday, May 20, 2012

Purity of Politics in India

राजनीति की सीता

पहले था आदर्श हमारा सादा जीवन उच्च विचार
अब है सुविधाओं से भरा लवादा जीवन तुच्छ विचार

कलियुग की बलिहारी देखो लुच्चे लोग मजे में हैं
नेता हुए मदारी जमे जमूरों के मजमे में हैं

राजनीति में राज रह गया कहीं नीति का पता नहीं
इसमें दोष हमारा ही है किसी और की खता नहीं

हम हैं उत्तरदायी हमने ही उनको चुनकर भेजा 
जब चुनाव आया तो हमने अच्छा बुरा नहीँ सोचा

कांग्रेस हो गयी बाँझ सारे नेता श्री-हीन हुए
एक विदेशी महिला के आगे वे कितने दीन हुए

काम कम्युनिस्टों का है वे बीजेपी को दें गाली
छोटे दल  थाली के बैंगन संसद है उनकी थाली

जीवन का आधार धर्म था उसको तो वनवास दिया
राजनीति को धर्महीन करने का सदा प्रयास किया

इन पैंसठ सालों में इसका चमत्कार हमने देखा
पार कर गयी राजनीति की सीता वह लक्ष्मण रेखा

अब तो कुछ दिन लंका में बस इसी तरह रहने होंगे
जब तक राम न लौटेंगे सीता को दुःख सहने होंगे