हिन्दी-दिवस (१४ सितम्बर) की पूर्व संध्या पर
भारत रत्न बाबू पुरुषोत्तमदास टण्डन जी को
शब्द सुमनांजलि
जो जला राष्ट्र भाषार्थ लौ की तरह, उस समर्पित शिखा को हृदय से नमन;
आइये आज हिन्दी-दिवस पर करें, उसके संकल्प का कर्ममय आचमन!!
वज्र सी अस्थियाँ वर्फ़ सी गल गयीं, स्वर्ण-काया पिघल मोम सी जल गयी;
किन्तु सिद्धान्त से जो न विचलित हुआ,अन्ततः पूर्ण करके दिखाया वचन!
स्वयं टकरा गया जाके चट्टान से, पुण्य-सलिला उठा लाया नभ-मान से;
राष्ट्र-भाषा-कमण्डल में ला रख दिया, जिसने हिन्दी को उस राज-ऋषि को नमन!
आइये! आज हम आप सब मिल करें,
उस तपस्वी के जीवन सा ही आचरण!
जिसने हिन्दी को गौरव से मण्डित किया, राष्ट्र-भाषा से स्वर को प्रचण्डित किया;
जो दिलाकर गया मान्यता विश्व में, उसका निश्छल हृदय से करें स्मरण!
आज हम राष्ट्र-भाषा के प्रतिप्रश्न पर, मौन साधे हुए हैं न होते मुखर;
कितने षड्यन्त्र अब तक रचे जा चुके, किन्तु हम सो रहे तान चादर सघन!
आइये! आज के इस ज्वलित प्रश्न पर,
हम सभी बैठकर कुछ करें आकलन!
है कहीं पर असमिया कहीं बांगला, दूसरी प्रान्त-भाषा बनीं अर्गला;
राष्ट्र-भाषा बिचारी खड़ी द्वार पर सर पटक कर रही है सिसककर रुदन!
कुछ तो संकल्प लें कुछ विचारें सभी, अन्यथा यह समस्या बनेगी कभी;
फिर मनेगा न हर साल "हिन्दी-दिवस", फिर न समिधा मिलेगी न होगा हवन!
आइये! वज्र-निर्माण हित हम करें,
शेष उन अस्थियों का पुनः संचयन!!
हिन्दी दिवस समारोह में प्रस्तुत की थी व समिति की स्मारिका "संकल्पिका" में प्रकाशित कर दिल्ली में आयोजित तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन में सभी प्रतिनिधियों को वितरित की थी. अखिल भारतीय स्तर पर इस कविता को प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था. अपने ब्लॉग के सुधी पाठकों की सेवा में प्रस्तुत है. एक निवेदन और ऊपर टण्डन जी का जो चित्र दिया गया है वह मैंने http://bharatmatamandir.in/blog/2010/04/26/purushottam-tandon/ वेबसाइट से साभार कापी करके यहाँ दिया है. मैं उस वेबसाइट निर्माता के प्रति अपनी विनम्र कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ....
9 comments:
बहुत ही प्रभावी व उद्वेलित करती हुयी अभिव्यक्ति..
आपके विचार मुझे आरम्भ से भी पसंद आते रहे हैं. इसलिये अपने मन की बात यहाँ कहते हुए मुझे प्रसन्नता होगी...
अपने विचारों को व्यक्त करने में जो केवल एक ही भाषा में पारंगत हो ... वह 'हिंदी दिवस' मनाये तो अजीब लगता है. - यह बात मैं अपने सन्दर्भ में कह रहा हूँ.
हमारा तो प्रति दिवस ही 'हिन्दीमय' है.
सुबह उठा तो सोचा कि आज सभी मित्रों से कहूँगा कि 'हिन्दी दिवस' पर संकल्प लेते हैं कि
"हिन्दी भाषा प्रयोग में अपशब्दों को दाखिला नहीं देंगे."
लेकिन फिर सोचा कि देश के वर्तमान माहौल में आम आदमी अपने आक्रोश को हिन्दी के शिष्ट प्रयोग से कब तक बाँधकर रखेगा. कोंग्रेस सरकार की क्रूरतम नीतियों ने भारत देश के साधारण नागरिकों की आर्थिक कमर तोड़कर ही रख दी है. ऐसे में उसका हथियार मात्र 'हिन्दी' में प्रचलित गालियाँ ही हैं.
मैं कभी अपशब्दों का पक्षधर नहीं रहा लेकिन आज़ जब कार्यालय आ रहा था तो राह चलते रिक्शेवाले, पैदल यात्री, दुकानों पर खड़े खरीददार सब-के-सब भयंकर गालियों से शासक-लुटेरों को कोस रहे थे. ...........तब मुझे लगा - गालियों का प्रयोग कहीं-कहीं ठीक है. असहाय के विरोध जताने का हथियार मात्र 'गाली' ही है.
*
आपके विचार मुझे आरम्भ से ही पसंद आते रहे हैं.
प्रिय प्रवीण! एवं प्रतुल!
हम उस जिले के रहने वाले हैं जहाँ के निवासी "गाली" का जबाव "गोली" से दिया करते हैं जानते हो इसका कारण क्या है?
इसका एक मात्र कारण है उनका दिल से साफ़ होना मन में कोई मैल न होना.
हाँ अगर गलती की है तो बच्चे से भी माफ़ी माँगने में उन्हें कोई शर्म नहीं आती.
उसी जिले के रामप्रसाद 'बिस्मिल' भी थे जो मेरे पिताजी (स्व० श्री रामलालजी) के बहुत अच्छे मित्रों में थे मेरे पिताजी उनके अन्तिम संस्कार में गोरखपुर १९ दिसम्बर १९२७ को गये थे.
वे उन्हें हमेशा "रामप्रसाद" ही कहते थे "बिस्मिल" नहीं. मेरे पिताजी को उर्दू नाम से चिढ़ थी.
यह जानकारी यहाँ देनी प्रासंगिक थी इसलिये दे दी.
वशिष्ठ होकर अपशब्दों का प्रयोग उचित नहीं , जो हम ही ऐसा करने लगे तो हमारी विशिष्टता ही क्या रहीं , शब्दों का संसार तो असीमित है , कुछ अच्छे शब्द भी ढूंढे जा सकते हैं आक्रोश प्रकट करने के लिये ।
सहमत हूँ आपकी बात से श्रद्धानंद जी। यदि मेरा अपना आक्रोश हो तो शब्द चयन की छूट ले लूँ। किन्तु जिनपर शब्द भंडार सीमित हो अथवा जो अशिक्षा परिवेश के कारण देशज शब्दों में आक्रोश व्यक्त करते हैं उनकी विवशता को समझते हुए ही पूर्व टिप्पणी की थी। अन्यथा मेरी सोच भी आपकी बात का समर्थन करती है। मुझे इस बात का गौरव है कि मेरी जिह्वा से अबोधता में एक बार के अलावा कोई भी अपशब्द नहीं निकला।
प्रिय प्रतुल और प्रिय श्रद्धानंद! बतायें क्या मन में दुख है।
जब कभी आप जैसों से हो संवाद, मुझे मिलता सुख है।
बरसों पहले यक मुक्तक यह भाषा को लेकर लिक्खा था,
फिर उसे आज प्रस्तुत करने को अहा बहुत मेरा मन है।
आचरण का खोल खाली हो गया है।
हर किसी का रोल जाली हो गया है।
हम जरूरत से जियादा पढ़ गये हैं,
अब हमारा बोल गाली हो गया है।
क्षमा करें वर्तमान शिक्षा प्रणाली के अन्दर पढ़ने वाले बच्चों की आपसी बातचीत को सुनकर ही ये पंक्तियाँ लिखी गयीं।
प्रिय प्रतुल और प्रिय श्रद्धानंद! बतायें क्या मन में दुख है।
जब कभी आप जैसों से हो संवाद, मुझे मिलता सुख है।
बरसों पहले यक मुक्तक यह भाषा को लेकर लिक्खा था,
फिर उसे आज प्रस्तुत करने को अहा बहुत मेरा मन है।
आचरण का खोल खाली हो गया है।
हर किसी का रोल जाली हो गया है।
हम जरूरत से जियादा पढ़ गये हैं,
अब हमारा बोल गाली हो गया है।
क्षमा करें वर्तमान शिक्षा प्रणाली के अन्दर पढ़ने वाले बच्चों की आपसी बातचीत को सुनकर ही ये पंक्तियाँ लिखी गयीं।
मेरी इस कविता को अखिल भारतीय स्तर पर प्रथम पुरस्कार मिल चुका है।
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