Monday, April 1, 2013

अनबन/Discord

अनबन
(हिन्दी गज़ल)
स्व० श्री बहोरनसिंह वर्मा 'प्रवासी'
मित्रो! प्रवासीजी की यह लोकप्रिय हिन्दी गज़ल मैंने उनकी अनुमति से अपनी हिन्दी-अंग्रेजी गीत गज़लों की पुस्तक स्वप्न-भ्रंश/Dead Dreams में पृष्ठ संख्या 16 पर प्रकाशित की थी व इसका अंग्रेजी अनुवाद स्वयं करके पृष्ठ  संख्या 17 पर दिया था. यहाँ प्रस्तुत है   

कैसे ग्रन्थि खुले अब मन  की, तुम भी चुप हो हम भी चुप!
कौन चलाये बात मिलन की, तुम भी चुप हो हम भी चुप!!

अलि सुमनों का लूट रहे रस, हो निर्द्वन्द्व समक्ष दृगों के!
कैसे लाज बचे उपवन की, तुम भी चुप हो हम भी चुप!!

कितने कुसुमों की पंखुड़ियाँ, बिखरा डालीं इस दर्पी ने!
कौन कहें धृष्टता पवन की, तुम भी चुप हो हम भी चुप!!

घुमड़े घन रिमझिम बौछारें, नींद दृगों की दूर हो गयी!
कैसे रैन कटे अनबन की, तुम भी चुप हो हम भी चुप!!

मिलनाशा से द्वार तुम्हारे, कितनी बार 'प्रवासी' आया!
कैसे हो अब पुष्टि कथन की, तुम भी चुप हो हम भी चुप!!

Discord

How be the knot of heart untie, both are silent, you and I.
How be now we unify, both are silent you and I.

Beetles looting juise of blooms, without fear before the eyes,
How be the honour of park defy, both are silent, you and I.

Many petals are thrown aside, by arrogant breeze in self rejoice,
Who is to check and ask him "why?" both are silent, you and I.

Unawarely what was not said, by me to ye and ye to me,
Who is to tell the tale of tie, both are silent, you and I.

Clouds sweld and rain drizzled, slumber of eyes has gone aloof,
How be the discord rectify, both are silent, you and I.

So many times I came to ye, with the expectation of compromise,
How may now I justify, both are silent, you and I.

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

अहा बहुत ही सुन्दर..

KRANT M.L.Verma said...

प्रवीण जी! प्रवासी जी मेरे बहुत पुराने और अच्छे मित्रों में थे। हिन्दी ग़ज़ल में उनका जवाब नहीं है।