अभिशप्त गरीबो! हटो तुम्हें इस दुनिया में, जलते अरमान बुझाने का अधिकार नहीं!
सुन्दरता तुमसे बचपन में ही बिछुड़ गयी, तुम ये मिट्टी की काया लेकर आये हो ;
आँखों में बादल अभी बरस कर चले गये, तुम आत्महीनता दूर नहीं कर पाये हो!
तुम ये श्रृद्धा के फूल कहीं भी ले जाओ, कोई अब इनको कर सकता स्वीकार नहीं!
प्रतिमाओं की इस सजी सजाई महफिल में, तुम अपने को प्रतिमा का रूप न दे पाये;
आशाओं का यह बुझा हुआ दीपक लेकर, तुम मन्दिर तक क्यों खाली हाथ चले आये?
पत्थर की चौखट पर चाहे सिर दे मारो, लेकिन खुल सकता यह लोहे का द्वार नहीं!
ये गढ़े गये कानून तुम्हारी ही खातिर, इसलिये कि ये अधिकार न तुमको मिल पायें;
ये टूट नहीं सकतीं कानूनी जंजीरें, हाँ भले तुम्हारी जलती साँसें बुझ जायें!
तुम क्यों आये बेकार यहाँ पर, लौट चलो; ऐसी दुनिया को, तुम जैसों से, प्यार नहीं!
1 comment:
मित्रो! यह कविता मैंने तब लिखी थी जब मैं ग्यारहवीं क्लास का विद्यार्थी था किन्तु हालात अभी भी ज्यो के त्यों हैं आंकड़ों के खेल में माहिर काँग्रेस सरकार एक ही झटके में जब कई करोड़ गरीबों को गरीबी की रेखा से उठाकर दूर फेंक सकती है तब वह दिन दूर नहीं जब मुल्क के सारे गरीब एक साथ आत्महत्या करने को मजबूर हो जायें! सुरसा के मुँह की तरह बढ़ रही महँगाई को देखकर इसकी सम्भावना साफ़-साफ़ दिखाई दे रही है!
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