सदा-ए-नफ़स
पं० रामप्रसाद 'बिस्मिल' की यह गज़ल 'स्वराज की कुंजी' नामक पुस्तक में संकलित की गयी थी जिसके कारण उक्त पुस्तक ब्रिटिश सरकार द्वारा ३१ मार्च १९३१ को जब्त कर ली गयी. मैंने इसे राष्ट्रीय अभिलेखागार नई दिल्ली से प्राप्त कर अपनी शोध ग्रन्थावली 'सरफ़रोशी की तमन्ना' के दूसरे भाग में पृष्ठ सं० १६० पर दिया था. वहीं से इस गज़ल को पाठकों की सेवा में प्रस्तुत किया जा रहा है.
दुश्मन के आगे सर ये झुकाया न जायेगा.
वारे-अलम अब और उठाया न जायेगा.
अब इससे ज्यादा और सितम क्या करेंगे वो,
अब इससे ज्यादा उनसे सताया न जायेगा.
जुल्मो-सितम से तंग न आयेंगे हम कभी,
हमसे सरे-नियाज झुकाया न जायेगा.
हम जिन्दगी से रूठ के बैठे हैं जेल में,
अब जिन्दगी से हमको मनाया न जायेगा.
यारो! है अब भी वक्त हमें देखभाल लो,
फिर कुछ पता हमारा लगाया न जायेगा.
हमने जो लगायी है आग इन्क़लाब की,
उस आग को किसी से बुझाया न जायेगा.
कहते हैं अलविदा अब हम अपने जहान को,
जाकर खुदा के घर से तो आया न जायेगा.
अहले-वतन अगरचे हमें भूल जायेंगे,
अहले-वतन को हमसे भुलाया न जायेगा.
यह सच है मौत हमको मिटा देगी एक दिन,
लेकिन हमारा नाम मिटाया न जायेगा.
आज़ाद हम करा न सके अपने मुल्क को,
'बिस्मिल' ये मुँह खुदा को दिखाया न जायेगा.
शब्दार्थ: सदा-ए-नफ़स=आत्मा की आवाज़, वारे-अलम=दुनिया के कष्ट, सरे-नियाज़=बन्दगी में सर
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