नरेन्द्र मोदी वनाम राहुल गान्धी
चुनाव आयोग ने विधान सभा चुनावों का ऐलान कर दिया है. इस पर दिल्ली की मुख्यमन्त्री श्रीमती शीला दीक्षित का बयान आया - "हम चुनाव जंग की तरह लड़ेंगे!" आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल ने कहा - "हम ये धर्मयुद्ध जीतेंगे!" दिल्ली देश का दिल है और जब देश के दिल की धड़कनें युद्ध की बात करने लगें तो बाक़ी अंगों का क्या हाल होगा यह आप और हम अच्छी तरह समझ सकते हैं. यह वही केजरीवाल हैं जिनको राजनीतिक पार्टी न् बनाने की सलाह खुद उनके गुरू अन्ना हजारे दे चुके हैं क्योंकि अन्ना का यह मानना था कि इससे काँग्रेस की घोर विरोधी पार्टी भाजपा के वोट कटेंगे और उससे काँग्रेस को चुनाव जीतने में मदद मिलेगी.
काँग्रेस के बाद देश की दूसरी सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी भारतीय जनता पार्टी द्वारा प्रधानमन्त्री पद के घोषित उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली आकर जब काँग्रेस मुक्त भारत के नारे के साथ युवाओं का आवाहन किया तो स्वाभाविक था अन्य दलों के सीने पर साँप लोटना. ऐसे में चारो ओर से बयानबाजियों की बाढ़ सी आ गयी. सबने एक ही सुर में अलापना शुरू कर दिया कि और चाहे कोई भी आ जाये पर मोदी को किसी कीमत पर नहीं आने देना चाहे इसके लिये उन्हें कुछ भी करना पड़े. क्योंकि मोदी आ गया तो इनका धन्धा चौपट कर देगा
मुझे याद आता है जब जवाहर लाल नेहरू के निधन के बाद इस देश में नेतृत्व का सवाल खड़ा हुआ तो लाल बहादुर शास्त्री ने केवल इतना कहा था कि वे एक मिट्टी के दीपक की भाँति हैं. उन्हें आजमाकर देखिये शायद कुछ रौशनी आपको मिल सके! और पूरी काँग्रेस पार्टी ने उन पर विश्वास किया. वे प्रधान मन्त्री बने और अठारह महीने के छोटे से शासन काल में राजनीति के क्षेत्र में जो मापदण्ड उन्होंने स्थापित किये उन्हें आज तक कोई छू भी न सका. क्या कभी किसी ने सोचा कि इसका कारण क्या था?
शास्त्रीजी एक बहुत ही गरीब घर में पैदा हुए थे. उन्होंने गरीबी देखी थी. काँग्रेस में एक सामान्य कार्यकर्ता से लेकर गृह मन्त्रालय तक में उन्होंने काम किया था. अत: जब वे प्रधान मन्त्री बने तो उन्होंने सारे कैबिनेट सचिवों की मीटिंग बुलाकर सिर्फ़ इतना कहा था अभी तक आप जो कुछ करते रहे वह सब मेरी जानकारी में हैं परन्तु मैं खामोश इसलिये रहा क्योंकि शासन की लगाम एक बहुत बड़े शासक के हाथ में थी. बहरहाल अब मैं इस देश का प्रधानमन्त्री हूँ अत: आज से जो भी सही गलत आप लोग करेंगे उसकी जिम्मेदारी मेरी होगी और मैं किस टाइप का इन्सान हूँ यह आप भली-भाँति जानते हैं. इसलिये आपसे मेरी बस इतनी गुजारिश है कि आप ऐसा कुछ नहीं करेंगे जिससे मेरे व आपके साथ मेरे देश की ईमानदारी पर कोई बट्टा लगे. आप सब लोग काफी समझदार हैं अत: मेरा इशारा आप समझ ही गये होंगे. अब आप लोग अपने विभाग में जा सकते हैं.
नरेन्द्र मोदी जब दिल्ली में रोहिणी के मैदान से बोल रहे थे मैंने उनका पूरा भाषण बड़े ध्यान से सुना. उन्होंने जब यह कहा कि वह प्लेटफार्म पर चाय बेचने से लेकर भाजपा के साधारण कार्यकर्ता, केन्द्रीय पदाधिकारी और पिछले दस वर्षों से लगातार एक प्रान्त के मुख्यमन्त्री तक का सफ़र तय कर चुके हैं. उन पर आप विश्वास कर सकते हैं. और अपनी ओर से उन्होंने यह विश्वास भी के मीडिया के माध्यम से पूरे देश को दिलाया कि वे उस विश्वास की रक्षा में कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे. सच मानिये मुझे लगा कि ६३ साल की आयु में भी ३६ साल के नौजवान जैसी हिम्मत व कुव्वत रखने वाले गरीब घर के एक साधारण से दिखने वाले इस व्यक्ति पर भरोसा किया जा सकता है और किया जाना भी चाहिये. शायद इस देश की वर्तमान व्यवस्था में कुछ बदलाव आ सके.
काँग्रेस में कई ईमानदार लोग हैं मगर वहाँ जो व्यवस्था है उसमें गान्धी-नेहरू परिवार से इतर सोचने या बोलने की किसी में हिम्मत ही नहीं है. इन्दिरा जी की मौत के बाद पायलट से प्रधानमन्त्री बने राजीव गान्धी की अदूरदर्शिता की कीमत राजीव भाई को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी. अन्यथा अपनी घरेलू समस्यायें छोड़कर श्रीलंका के लिट्टे जैसे खूँख्वार संगठन से पंगा लेने की क्या जरूरत थी. अब रह गयी उनके शहजादे राहुल गान्धी की राजनीतिक परिपक्वता की बात तो उन्हें किसी भी मन्त्रालय के कामकाज का रत्ती भर भी अनुभव नहीं है. उनके हाथ में शासन की बागडोर सौंपना उतना ही खतरनाक होगा जितना किसी बन्दर के हाथ में माचिस की तीली पकड़ा देना. फ़िलहाल यहाँ दो उदाहरण देना ही पर्याप्त रहेगा.
एक रैली में उन्होंने अपनी ही पार्टी-प्रत्याशियों की सूची फाड़ दी थी. दूसरी घटना अभी हाल की है जब उन्होंने अपनी ही सरकार और मन्त्रिमण्डल के निर्णय को "नॉनसेन्स" तक कह डाला और अब यह सफाई देते घूम रहे हैं कि उनके शब्द गलत थे मगर भावना सही थी. क्या इस तरह के बचकाने बयानों से यह देश चलने वाला है?
दूसरी बात बयानबाजी को लेकर और सामने आयी है जिसे मीडिया ने निरर्थक बहस करके बतंगड़ बना दिया. वह बात थी गान्धी-शास्त्री जयन्ती पर देवालय से पहले शौचालय को तरजीह देने की जिसे प्रवीण तोगड़िया के बयान का सहारा लेते हुए विपरीत दिशा में मोड़ने का प्रयास यह कहकर किया गया कि मोदी को यह अक्ल उस समय क्यों नहीं आयी जब राम-मन्दिर आन्दोलनकारियों ने अयोध्या में तथाकथित बावरी मस्जिद के ढाँचे को ध्वस्त कर दिया था. ऐसा तर्क देने वाले यह भूल गये कि १९९२ में जब अयोध्या-काण्ड हुआ था उस समय जनान्दोलन की बागडोर लालकृष्ण आडवाणी के हाथ में थी नरेन्द्र मोदी के हाथ में नहीं.
एक ओर तो ये सेकुलरिस्ट यह कहते नहीं थकते कि मोदी ने अपने गुरू लालकृष्ण आडवाणी को ताक पर उठाकर रख दिया है और दूसरी ओर उसी गुरू द्रोण का एकलव्यनुमा शिष्य जब देवालय और शौचालय में अपनी वरीयता बतलाने की कोशिश करता है तो इनका पैमाना ही बदल जाता है. बाकयी बड़ा तरस आता है इनकी शुतुरमुर्गी बुद्धि पर. इससे भयंकर राजनीतिक प्रदूषण भला और कुछ हो सकता है क्या?
Photo of Modi & Rahul http://commons.wikimedia.org/wiki/File:RahulModi.jpg के सौजन्य से
No comments:
Post a Comment