मिर्ज़ा ग़ालिब की एक ग़ज़ल पर
बिस्मिल जी की ये कता पढ़ें और प्रतिक्रिया दें:
"हकीर होके न हिन्दोस्ताँ में यूँ रहिये.
ये जोर जुल्म जलालत जहाँ में क्यूँ सहिये.
रहे रगों में रबाँ वो लहू नहीं 'बिस्मिल',
बहे जो कौम की खातिर उसे लहू कहिये."
शहीदे-आज़म पंडित राम प्रसाद 'बिस्मिल'
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नोट: "जो आँख ही से न टपके तो फिर लहू क्या है?"- (ग़ालिब). शब्दार्थ: हकीर=इतना अधिक छोटा
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