तटस्थ शान्ति?
चुप्पियों के अर्थ गहरे हो गये हैं.
मौन के अक्षर सुनहरे हो गये हैं.
मौन के अक्षर सुनहरे हो गये हैं.
शोर से अनभिज्ञ हैं अब तक दीवारें,
खिड़कियों के कान बहरे हो गये हैं.
खिड़कियों के कान बहरे हो गये हैं.
त्रासदी के बोझ से घायल दिशायें,
मार से बीमार दोहरे हो गये हैं.
मार से बीमार दोहरे हो गये हैं.
चाल चलता जा रहा हर बार कोई,
हम महज इंसान मोहरे हो गये हैं.
हम महज इंसान मोहरे हो गये हैं.
रूढ़ियों की बेडियाँ जब से कटी हैं,
और दकियानूस पहरे हो गये है.
और दकियानूस पहरे हो गये है.
'क्रान्त' जबसे आँख का पानी मरा है,
शक्ल से मनहूस चेहरे हो गये हैं.
शक्ल से मनहूस चेहरे हो गये हैं.
1 comment:
.
आदरणीय वर्मा जी ,
आपकी उत्कृष्ट ,ओजमयी रचनाओं से समाज का उदास चेहरा, शासकों की कुटिलता , जनता की लाचारी साफ़ दिखाई देती है। आँख का पानी जब मर जाए तो विद्रूप हुए इस चेहरे को बेहतर बनाने का कोई विकल्प लिखिए।
सादर,
आपकी दिव्या।
.
Post a Comment