१११ वें जन्म दिन पर विशेष
शहीदे-वतन अशफाकउल्ला खाँ
उत्तर प्रदेश के शहीदगढ शाहजहाँपुर में २२ अक्तूबर १९०० को जन्मे अशफाकउल्ला खाँ के पिता मोहम्मद शफीकउल्ला खाँ एक कद्दावर पठान थे और उनकी माँ मजहूरुन्निशाँ बेगम बेहद खूबसूरत थीं। अशफाक ने खुद अपनी डायरी में लिखा था कि जहाँ उनके बाप-दादों के खानदान में एक भी ग्रेजुएट न हो सका वहीं दूसरी ओर उनकी ननिहाल में सभी लोग उच्च शिक्षित थे। उनमें से कई तो डिप्टी कलेक्टर व सब जुडीशियल मैजिस्ट्रेट के पदों पर रह चुके थे। १८५७ के गदर में उनके ननिहाल वालों ने जब हिन्दुस्तान का साथ नहीं दिया तो शाहजहाँपुर की जनता ने गुस्से में आकर उनकी आलीशान कोठी को आग के हवाले कर दिया था। वह कोठी आज भी पूरे शहर में
''जली कोठी'' के नाम से मशहूर है। गोया अशफाक ने अपनी कुरबानी देकर ननिहाल वालों के नाम पर लगे उस बदनुमा दाग को हमेशा-हमेशा के लिये धो डाला।
यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि काकोरी काण्ड का फैसला ६ अप्रैल १९२६ को आ गया था। अशफाक उल्ला खाँ और शचीन्द्रनाथ बख्शी को पुलिस बहुत बाद में गिरफ्तार कर पायी थी अत: स्पेशल सेशन जज जे०आर०डब्लू० बैनेट की अदालत में ७ दिसम्बर १९२६ को एक पूरक मुकदमा दायर किया गया। मुकदमे के मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन ने अशफाक को सलाह दी कि वे किसी मुस्लिम वकील को अपने केस के लिये नियुक्त करें किन्तु अशफाक ने जिद करके कृपाशंकर हजेला को अपना वकील चुना। इस पर एक दिन सी०आई०डी० के पुलिस कप्तान खानबहादुर तसद्दुक हुसैन ने जेल में जाकर अशफाक से मिले और उन्हें फाँसी की सजा से बचने के लिये सरकारी गवाह बनने की सलाह दी। जब अशफाक ने उनकी सलाह को तबज्जो नहीं दी तो उन्होंने एकान्त में जाकर अशफाक को समझाया-
''देखो अशफाक ! तुम भी मुस्लिम हो और मैं भी एक मुस्लिम हूँ इस बास्ते तुम्हें आगाह कर रहा हूँ। ये राम प्रसाद बिस्मिल बगैरा सारे लोग हिन्दू हैं। ये यहाँ हिन्दू सल्तनत कायम करना चाहते हैं। तुम कहाँ इन काफिरों के चक्कर में आकर अपनी जिन्दगी जाया करने की जिद पर तुले हुए हो। मैं तुम्हें आखिरी बार समझाता हूँ, मियाँ! मान जाओ; फायदे में रहोगे।"
इतना सुनते ही अशफाक की त्योरियाँ चढ गयीं और वे गुस्से में डाँटकर बोले-
"खबरदार! जुबान सम्हाल कर बात कीजिये। पण्डित जी (राम प्रसाद बिस्मिल) को आपसे ज्यादा मैं जानता हूँ। उनका मकसद यह बिल्कुल नहीं है। और अगर हो भी तो हिन्दू राज्य तुम्हारे इस अंग्रेजी राज्य से बेहतर ही होगा। आपने उन्हें काफिर कहा इसके लिये मैं आपसे यही दरख्वास्त करूँगा कि मेहरबानी करके आप अभी इसी वक्त यहाँ से तशरीफ ले जायें वरना मेरे ऊपर दफा ३०२ (कत्ल) का एक केस और कायम हो जायेगा।"
इतना सुनते ही बेचारे कप्तान साहब (तसद्दुक हुसैन) की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी और वे अपना सा मुँह लेकर वहाँ से चुपचाप खिसक लिये। बहरहाल १३ जुलाई १९२७ को पूरक मुकदमे (सप्लीमेण्ट्री केस) का फैसला सुना दिया गया - दफा १२० (बी) व १२१ (ए) के अन्तर्गत उम्र-कैद और ३९६ के अन्तर्गत सजाये-मौत अर्थात् फाँसी का दण्ड।
गुरुवार, १५ दिसम्बर १९२७ की शाम फैजाबाद जेल की काल कोठरी से अशफाक उल्ला खाँ ने अपना आखिरी पैगाम हिन्दुस्तान के अवाम के नाम लिखकर उर्दू भाषा में भेजा था। उनका मकसद यह था कि मुस्लिम समुदाय के लोग इस पर खास तवज्जो तक यह पूरा सन्देश दिया हुआ है उसी में से कुछ खास अंश अपने ब्लॉग के पाठकों हेतु यहाँ पर दे रहा हूँ।
"गवर्नमेण्ट के खुफिया एजेण्ट मजहबी बुनियाद पर प्रोपेगण्डा फैला रहे हैं। इन लोगों का मक़सद मजहब की हिफाजत या तरक्की नहीं है, बल्कि चलती गाडी़ में रोडा़ अटकाना है। मेरे पास वक्त नहीं है और न मौका है कि सब कच्चा चिट्ठा खोल कर रख देता,जो मुझे अय्यामे-फरारी (भूमिगत रहने) में और उसके बाद मालूम हुआ। यहाँ तक मुझे मालूम है कि मौलवी नियामतुल्ला कादियानी कौन था जो काबुल में संगसार (पत्थरों से पीट कर ढेर) किया गया। वह ब्रिटिश एजेण्ट था जिसके पास हमारे करमफरमा (भाग्यविधाता) खानबहादुर तसद्दुक हुसैन साहब डिप्टी सुपरिण्टेण्डेण्ट सी०आई०डी० गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया पैगाम लेकर गये थे मगर बेदारमग़ज हुकूमते-काबुल (काबुल की होशियार सरकार) ने उसका इलाज जल्द कर दिया और कम्युनलिज्म की बीमारी को वहाँ फैलने न दिया।"
इसके बाद उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के फायदे, अहमदाबाद कांग्रेस जैसा इत्तिहाद (मेलमिलाप), गोरी अंग्रेजियत का भूत उतारने की बात करते हुए देश के सभी कम्युनिस्ट ग्रुप (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी) से विदेशी मोह व देशी चीजों से नफरत का त्याग करने की नायाब नसीहत देते हुए चन्द अंग्रेजी पंक्तियों के साथ रुखसत होने की गुजारिश की:
"मेरे भाइयो! मेरा सलाम लो और इस नामुकम्मल (अधूरे) काम को, जो हमसे रह गया है, तुम पूरा करना। तुम्हारे लिये हमने यू०पी० (उत्तर प्रदेश) का मैदाने-अमल (कार्य-क्षेत्र) तैयार कर दिया। अब तुम जानो तुम्हारा काम जाने। मैं चन्द सुतूर (पंक्तियों) के बाद रुखसत (विदा) होता हूँ:
"To every man upon this earth, death cometh soon or late.
But how can man die better, than facing fearful odds.
For the ashes of his fathers, and temples of his gods."
बिस्मिल की तरह अशफाक भी बहुत अच्छे शायर थे। इन दोनों की शायरी की अगर तुलना की जाये तो रत्ती भर का भी फर्क आपको नजर नहीं आयेगा। पहली बार की मुलाकात में बिस्मिल अशफाक के मुरीद हो गये थे जब एक मीटिंग में बिस्मिल के एक शेर का जबाव उन्होंने अपने उस्ताद जिगर मुरादाबादी की गजल के मक्ते से दिया था। जब बिस्मिल ने कहा-
"बहे बहरे-फना में जल्द या रब! लाश 'बिस्मिल' की।
कि भूखी मछलियाँ हैं जौहरे-शमशीर कातिल की।।"
तो अशफाक ने ''आमीन" कहते हुए जबाव दिया-
"जिगर मैंने छुपाया लाख अपना दर्दे-गम लेकिन।
बयाँ कर दी मेरी सूरत ने सारी कैफियत दिल की।।"
एक रोज का वाकया है अशफाक आर्य समाज मन्दिर शाहजहाँपुर में बिस्मिल के पास किसी काम से गये। संयोग से उस समय अशफाक 'जिगर' मुरादाबादी की यह गजल गुनगुना रहे थे-
"कौन जाने ये तमन्ना इश्क की मंजिल में है।
जो तमन्ना दिल से निकली फिर जो देखा दिल में है।।"
बिस्मिल यह शेर सुनकर मुस्करा दिये तो अशफाक ने पूछ ही लिया-
"क्यों राम भाई! मैंने मिसरा कुछ गलत कह दिया?"
इस पर बिस्मिल ने जबाब दिया-
"नहीं मेरे कृष्ण कन्हैया! यह बात नहीं। मैं जिगर साहब की बहुत इज्जत करता हूँ मगर उन्होंने 'मिर्ज़ा गालिब' की पुरानी जमीन पर घिसा पिटा शेर कहकर कौन-सा बडा तीर मार लिया। कोई नयी रंगत देते तो मैं भी ''इरशाद'' कहता।"
अशफाक को बिस्मिल की यह बात जँची नहीं; उन्होंने चुनौती भरे लहजे में कहा-
"तो राम भाई! अब आप ही इसमें गिरह लगाइये, मैं मान जाऊँगा आपकी सोच जिगर और गालिब से भी परले दर्जे की है।"
उसी वक्त पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल ने ये शेर कहा-
"सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
देखना है जोर कितना बाजु- ए- कातिल में है?"
यह सुनते ही अशफाक उछल पडे और बिस्मिल को गले लगा के बोले-
"राम भाई! मान गये; आप तो उस्तादों के भी उस्ताद हैं।"
इसके बाद तो अशफाक और बिस्मिल में होड-सी लग गयी एक से एक उम्दा शेर कहने की। परन्तु अगर ध्यान से देखा जाये तो दोनों में एक तरह की
'टेलीपैथी' काम करती थी तभी तो उनके जज्बातों में एकरूपता दिखायी देती है। मिसाल के तौर पर चन्द मिसरे हाजिर हैं उदाहरण के लिए बिस्मिल का यह शेर-
"अजल से वे डरें जीने को जो अच्छा समझते हैं।
मियाँ! हम चार दिन की जिन्दगी को क्या समझते हैं?"
अशफाक की इस कता के कितना करीब जान पडता है-
"मौत एक बार जब आना है तो डरना क्या है!
हम इसे खेल ही समझा किये मरना क्या है?
वतन हमारा रहे शादकाम और आबाद,
हमारा क्या है अगर हम रहे,रहे न रहे।।"
मुल्क की माली हालत को खस्ता होता देखकर लिखी गयी बिस्मिल की ये पंक्तियाँ
"तबाही जिसकी किस्मत में लिखी वर्के-हसद से थी,
उसी गुलशन की शाखे-खुश्क पर है आशियाँ मेरा।"
अशफाक के इस शेर से कितनी अधिक मिलती हैं-
"वो गुलशन जो कभी आबाद था गुजरे जमाने में,
मैं शाखे-खुश्क हूँ हाँ हाँ उसी उजडे गुलिश्ताँ की।"
इसी प्रकार वतन की बरवादी पर बिस्मिल की पीडा
"गुलो-नसरीनो सम्बुल की जगह अब खाक उडती है,
उजाडा हाय! किस कम्बख्त ने यह बोस्ताँ मेरा।"
से मिलता जुलता अशफाक का यह शेर किसी भी तरह अपनी कैफियत में कमतर नहीं-
"वो रंग अब कहाँ है नसरीनो-नसतरन में,
उजडा हुआ पडा है क्या खाक है वतन में?"
बिस्मिल की एक बडी मशहूर गजल
'उम्मीदे-सुखन' की ये पंक्तियाँ-
"कभी तो कामयाबी पर मेरा हिन्दोस्ताँ होगा।
रिहा सैय्याद के हाथों से अपना आशियाँ होगा।।"
अशफाक को बहुत पसन्द थीं। उन्होंने इसी बहर में सिर्फ एक ही शेर कहा था जो उनकी अप्रकाशित डायरी में इस प्रकार मिलता है:
"बहुत ही जल्द टूटेंगी गुलामी की ये जंजीरें,
किसी दिन देखना आजाद ये हिन्दोस्ताँ होगा।"
जिन्हें अशफाक और बिस्मिल की शायरी का विशेष या तुलनात्मक अध्ययन करना हो वे किसी भी पुस्तकालय में जाकर मेरी पुस्तक
स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास का दूसरा भाग देख सकते हैं।
अशफाक के बारे में आप अंग्रेजी विकिपीडिया में लेख देख सकते हैं लिंक दे रहा हूँ:
http://en.wikipedia.org/wiki/Ashfaqulla_Khan