मेरा रँग दे बसन्ती चोला
लखनऊ जेल में काकोरी षड्यन्त्र के सभी अभियुक्त कैद थे. केस चल रहा था इसी दौरान "बसन्त पंचमी" का त्यौहार आ गया. सबने मिलकर तय किया कि कल बसन्त पंचमी के दिन सभी सर पर पीली टोपी और हाथ में पीला रूमाल लेकर कोर्ट चलेंगे. उन्होंने अपने नेता राम प्रसाद 'बिस्मिल' से कहा- "पंडितजी! कल के लिए कोई फड़कती हुई कविता लिखिये, उसे हम सब मिलकर गायेंगे." अगले दिन कविता तैयार थी;
मेरा रँग दे बसन्ती चोला....हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
इसी रंग में रँग के शिवा ने माँ का बन्धन खोला,
यही रंग हल्दीघाटी में था प्रताप ने घोला;
नव बसन्त में भारत के हित वीरों का यह टोला,
किस मस्ती से पहन के निकला यह बासन्ती चोला.
मेरा रँग दे बसन्ती चोला....हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
भगतसिंह जब लाहौर जेल में बन्द थे तो उन्होंने इसमें ये पंक्तियाँ और जोड़ी थीं:
इसी रंग में बिस्मिल जी ने "वन्दे-मातरम" बोला,
यही रंग अशफाक को भाया उनका दिल भी डोला;
इसी रंग को हम मस्तों ने लहू में अपने घोला.
मेरा रँग दे बसन्ती चोला....हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
मेरा रँग दे बसन्ती चोला....हो माय! रँग दे बसन्ती चोला....
मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
आज अमर शहीद भगतसिंह की १०४ वीं जयन्ती पर उन्हीं के प्रिय गीत के साथ हम सब भारतवासियों की उस दिव्यात्मा को हार्दिक श्रद्धान्जलि!!!