Monday, December 31, 2012

Pitcher of sins

पाप का घड़ा


मित्रो! मैंने कभी "वंशवाद का वैताल" शीर्षक से एक कविता लिखी थी:

सैंतालिस में माटी हो गई कांग्रेस की काया,
उस माटी में वंशवाद का महाप्रेत घुस आया;
नेहरू-इन्द्रा के पीछे राजीव-सोनिया आये,
राहुल बाबा सोच रहे- "कब उनका नम्बर आये?"
कहें 'क्रान्त' जब राहुल बाबा का नम्बर आयेगा,
कांग्रेस के पापों का तब घड़ा फूट जायेगा.

२०१२ के जाते-जाते दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की जो ह्रदय विदारक घटना हुई
उसके कुछ पहलू विचारणीय हैं. मैं इस ब्लॉग के माध्यम से समूचे देश का ध्यान
उन पर ले जाना चाहता हूँ.

देश की राजधानी दिल्ली में सरकार की नाक के नीचे एक महिला के साथ जो कुछ
हुआ उसमें दिल्ली की मुख्यमन्त्री शीला दीक्षित से लेकर कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गान्धी,
नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज तीनों की राशि "कुम्भ" है. सिंगापुर, जहाँ पहुँचकर उस युवती
महिला ने दम तोड़ा उसकी राशि भी "कुम्भ" है.  कुम्भ घड़े को कहते हैं यह इस बात का
संकेत है कि कांग्रेस सरकार के पापों का घड़ा (कुम्भ) लगभग भर चुका है और यह
राहुल बाबा के आते ही फूटने वाला है.

मेरी डॉ. मनमोहन सिंह जी से प्रार्थना है कि वे स्वेच्छा से २०१३ में राहुल गान्धी को गद्दी
सौंप दें ताकि कांग्रेस के पापों का घड़ा वही अपने सिर पर रखकर अपने पूर्वजों की चिता
की परिक्रमा करते हुए राजघाट के आसपास जाकर फोड़ सकें.

प्रतीक्षा कीजिये अंग्रेजी नववर्ष (२०१३) के शुभागमन की.....
  

Tuesday, December 25, 2012

Atal Bihari Vajpayee's Meri Ikyavan Kavitayen:Rhym-Review

Atalji speaking on 19-12-1996

अटलबिहारी वाजपेयी की काव्य-कृति

मेरी इक्यावन कविताएँ

की

काव्य-मीमांसा

समीक्षा गीत

डॉ. मदनलाल वर्मा 'क्रान्त'

१३ अक्टूबर १९९५ को नई दिल्ली के फिक्की सभागार में उपरोक्त कृति का विमोचन तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव ने किया था. इस कृति की काव्य-मीमांसा मैंने एक समीक्षा गीत के रूप में अपनी ही हस्तलिपि में लिखकर अटलजी को उनके निवास स्थान पर जाकर भेंट की थी. बाद में यह सुनील जोगी ने इसे अपनी पुस्तक राजनीति के शिखर: कवि अटलबिहारी वाजपेयी में प्रकाशित भी किया था. आज अटलजी के ८८ वें जन्म-दिन पर मैं इस समीक्षा गीत को यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ. इसमें उक्त कृति की कविताओं के "शीर्षकों" का प्रयोग करते हुए काव्य-मीमांसा करने की कोशिश की गयी है. समीक्षा गीत काव्यशास्त्र की सर्वाधिक नई विधा है जिसका हिन्दी जगत को स्वागत करना चाहिये.

काव्यपरक अनुभूति स्वरों में शामिल हैं तेइस कविताएँ,
कविता में संकल्प बोलता-"आओ! फिर से दिया जलाएँ."
"हरी दूब" पर "अवसर" जैसे हो पहचान निजत्व बोध की,
"गीत नहीं गाता हूँ" में वैराग्य-भावना स्वत्व-शोध की.

है तटस्थ अभिव्यक्ति व्यक्ति की "ना मैं चुप हूँ ना गाता हूँ,"
फिर भी कवि प्रयासरत हो कहता है-"गीत नया गाता हूँ."
है व्यक्तित्व परक दर्शन की शब्दमयी अभिव्यक्ति "ऊंचाई",
"कौरव कौन? कौन पाण्डव?" है राजनीति की यह सच्चाई.

जब "दरार पड़ गयी दूध में" फिर "अलगाव" कहाँ से जाये?
है "मन का सन्तोष" मनुजता पर ये मन कैसे समझाये?
नाम आपका "अटल" "झुक नहीं सकते" यह है अटल-प्रतिज्ञा,
"दूर कहीं रोता है कोई" लिये अकेलेपन की त्रिज्या.

"जीवन बीत गया" यह कोई चक्र नहीं यूँ ही रुक जाये,
जीवन है संघर्ष तभी "ठन गयी मौत से" यह बतलाये.
"राह कौन सी जाऊँ मैं" में यह कैसा भ्रम पाल लिया है?
यह तो एक महानगरी है फिर क्यों सोच-विचार किया है?

"हिरोशिमा की पीड़ा" में है शिव के महाप्रलय की क्रीड़ा,
"नये मील का पत्थर" कहता-पुन: उठाओ व्रत का बीड़ा.
न हो निराशा कभी "मोड़ पर","मनस्विता की गाँठें" खोलें;
"नई गाँठ लगती है" फिर भी यह चादर कबीर सी धो लें.

चक्रव्यूह में चक्षु न भटकें "यक्ष-प्रश्न" के समाधान हों,
निर्मलतामय "क्षमा-याचना" पूर्ण सभी स्वर मूर्तिमान हों.
"राष्ट्रीयता के स्वर" में हैं दसो दिशाओं की कविताएँ,
"स्वतन्त्रता ही की पुकार" है भारत माँ की अभिलाषाएँ.

"अमर आग है" प्रखर तत्व की "परिचय" में हिन्दू-निष्ठा है,
स्वाभिमान गौरव जतलाने "आज सिन्धु में ज्वार उठा है".
"जम्मू की पुकार" के पीछे कहता काश्मीर - हे ईश्वर!
ना जाने किस रोज बढ़ेंगे? "कोटि चरण इस ओर निरन्तर".

मगन "गगन में कब लहरेगा भगवा ध्वज?" यह पुन: हमारा,
"उनको याद करें" जिन सरफ़रोश वीरों ने हमें उबारा.
है गणतन्त्र अमर "सत्ता" के मद में चूर न हम हो जायें,
राष्ट्रीयता के स्वर में सन्देश दे रहीं दस कविताएँ.

देश भक्त जेलों में ठूँसे हुई "मातृपूजा प्रतिबन्धित",
"कण्ठ-कण्ठ में एक राग है" यह स्वर हुआ राष्ट्र में गुंजित.
अटल चुनौती ने ललकारा-"आये जिस-जिस में हिम्मत हो",
"एक बरस जब बीत गया" तो लगा कि जैसे सत्यागत हो.

जब "जीवन की साँझ ढली" तो लगा कि जैसे डगर कट गयी,
लौटी आश "पुन: चमकेगा दिनकर" काली-निशा छँट गयी.
"कदम मिलाकर चलना होगा" पुन: पड़ोसी से कहते हैं,
होते हैं समृद्ध वही जो मिलकर एक साथ रहते हैं.

अटल चुनौती के स्वर हैं ये सब की सभी आठ कविताएँ,
आओ! इनका दर्शन समझें अपने जीवन में अपनाएँ.
अपनों के सपनों का रोना "रोते-रोते रात सो गयी",
प्रकृति-पुरुष को पास "बुलाती तुम्हें मनाली" बात हो गयी.

मन का "अन्तर्द्वंद्व" न सुलझा ग्रन्थि सवालों की सुलझा ली,
"बबली-लौली" स्नेह-वर्तिका से मनती हर साल दिवाली.
"अपने ही मन से कुछ बोलें" जीवन का हर द्वार खुलेगा,
पिया! "मनाली मत जइयो" अन्धे-युग का धृतराष्ट्र मिलेगा.

"देखो! हम बढ़ते ही जाते" चरैवेति अपना चिन्तन है,
"जंग न होने देंगे" यह हम हिन्दू लोगों का दर्शन है.
जो हिंसा से दूर रहे वह सच्चे अर्थों में हिंदू है,
जो इस् ला को त माने उस मजहब की रग-रग में बू है.

"आओ! मर्दो नामर्द बनो" व्यंग्योक्ति शक्ति का नारा है,
यह "सपना टूट गया" तो फिर कलयुग में संघ सहारा है.
तेइस दस आठ और दस मिलकर हैं इक्यावन कविताएँ,
जीवन-दर्शन की द्योतक हैं- मेरी इक्यावन कविताएँ.

"मेरी इक्यावन कविताएँ" हैं अटलबिहारी का जीवन,
सच है "मनुष्य के भी ऊपर होता है उसका अपना मन".
तुम अपने मन के राजा हो मन का धन कहीं न खो जाये,
कितने ही ऊँचे उठो मगर अभिमान न रत्ती भर आये.

अपनेपन की सौगन्ध आपको 'क्रान्त' दे रहा बार-बार,
श्रद्धेय अटलजी! जीवन भर बस यूँ ही रहना निर्विकार.
  
 नोट:- अपनी प्रतिक्रिया अवश्य भेजें, हमें आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी. इसमें ऊपर जो चित्र दिया है वह अटल जी का उस समय का ऐतिहासिक चित्र है जब वे रामप्रसाद 'बिस्मिल' की पुण्य-तिथि पर नई दिल्ली में आयोजित पुस्तक-विमोचन समारोह में मुख्य वक्ता के रूप में बोल रहे थे. पृष्ठभूमि में लगा हुआ क्रान्तिकारी पण्डित रामप्रसाद 'बिस्मिल' का चित्र कार्यक्रम के पश्चात् भारतीय जनता पार्टी के केन्द्रीय कार्यालय में लगवा दिया गया था. उस समय नरेन्द्र मोदी जी केन्द्रीय कार्यालय में भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव के रूप में नियुक्त थे.



Poet Shyam Nirmam is no more!

श्याम निर्मम (1950-2012) की स्मृति में

उनकी कृति हाशिये पर हम के समर्थन में लिखा गया

समीक्षा गीत 

(आज मन बहुत उदास है मेरे प्रिय मित्र श्याम निर्मम आज नहीं रहे अब केवल उनकी कीर्ति ही शेष रह गयी है. कभी उन्होंने मुझे अपनी कृति "हाशिये पर हम" भेंट की थी. मैंने उस पर एक "समीक्षा गीत" लिखकर उन्हें भेजा था. पता नहीं उन्होंने उसका कहीं उल्लेख या उपयोग किया अथवा नहीं बहरहाल उस समीक्षा गीत को यहाँ इस ब्लॉग पर पोस्ट कर रहा हूँ. )

निर्मम क्यों हो? प्रश्न किया जब माँ की ममता ने,
उत्तर दिया पिता की बूढ़ी होती क्षमता ने;
मैं माटी का गीत लिये जब लहरों पर उतरा,
नौका एक काँपती है सामने खड़ा खतरा.
हुआ सत्य-शिव-सुन्दर फिर भी अंतहीन यात्रा,
उम्र हुई खरगोश बढ़ गयी जीवन की मात्रा.

ये विराट बौने आहत तुम साँकल कभी हुए,
शंख आत्मबल का टूटा भ्रम बादल सभी हुए;
चील मछलियों पर डेरा डाले मँडराती है,
फूल कोई अधखिला उसे यह हवा डराती है;
सब हो गया हवन जीवन कितना सन्नाटा है!
चित्र बिगड़ते बनते उन्हें धार ने काटा है.

अरे बोल रे मन! क्यों हुईं मदनगंधा साँसें,
सदा रौशनी उसको मिलती जो देता झाँसे;
हमीं वंशधर हैं सूरज के जो दिन-रात जले,
हैं वीरान बस्तियाँ मन की, बंजारे निकले;
ये सलाइयाँ सुरमे की कह रहीं उदासी गा!
ज्योति-पन्थ दिखला सबको तू खुद मशाल बन जा.

सूखी घास रौंदते घोड़े, ये ही दिव्य हुए;
थर्राता है गगन, धुँआ होकर हम हव्य हुए;
क्यों सपनों का अहं छले, बेखबर हुआ निर्झर;
अभी मौन है बंशी, मैं कड़वा काढ़ा तू ज्वर.
ऐहसासों की नमी हुई गुम ऐसा घाव हुआ,
सफ़र जिन्दगी का जैसे कोई भटकाव हुआ.

रोज सवेरा उगता है इठलाता है यौवन,
हमें साँप सा डसता है घनघोर अकेलापन;
टूटेंगे सब जाल कुहासी जो तूने डाले,
कंठ सभी भर्राये जब टूटे तम के जाले.
गुलमोहर की छाँव भरे दिन हुए दिशाओं के,
पावन गंध हुई, नूपुर बज उठे हवाओं के .

खामोशियाँ बैंजनी मोती की, कवि-स्वर घायल;
वातायन के सेतु काँपते, गुमसुम है पायल; 
ऐसे में एहसास करीलों में कुछ तितली सा,
बौने हुए बड़े दम घुटता जल में मछली का;

अमृत सब चाहते यहाँ पर शंकर कौन बने?
शिखर ढह रहे छन्दों के गीतों की कौन सुने?
हम कविता के बीज हमारे शब्दों में है दम!
आज हाशिये पर हम तो क्या कल होंगे परचम!!










Wednesday, November 28, 2012

Lamps of Pain (English Translation of वेदना के दीप)

LAMPS OF PAIN

This is the English translation of  premier lyric of my book VEDNA KE DEEP which was published in my another book स्वप्न भ्रंश / DEAD DREAM in 1994 (2nd Edition) from KIMVA PRAKASHAN, NOIDA.

I lit the lamps of uncommon pain.

Morn of your notion had taken away,
The night of dreams towards a dawn.
Laughed my lips having eyes' perception,
That you would not now leave me alone.

But the cruel night launching an arrow,
Roused the agony of my sentiment.
Why did thou touch the sky? tell me,
Leaving my horizon and killing attachment.

Rest is the will to die, no lust,
I have quenched my every thrust.
Void is the oyster and pearls are drain,
I lit the lamps of uncommon pain.

So as to fulfill my accomplishment,
I did continued walking on the way.
But the hurdles always block my track,
And stop the outcoming feeling's ray.

Don't be perplexed of such hinderance,
You are not to get here any repose.
Flow as much as you can, O stream!
You are to get peace in last pose.

O beetle do'nt disclose my distress,
Otherwise there won't be any dawn.
Smearing with tears my every strain,
I lit the lamps of uncommon pain.

Tuesday, November 27, 2012

Vedna Ke Deep (हिन्दी)

वेदना के दीप

वर्ष २००१ में प्रकाशित यह कृति अखिल भारतीय स्तर पर गीत विधा की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक के रूप में चुनी गयी और इस पर २००२ में भवानीप्रसाद मिश्र सम्मान दिया गया.

इस पुस्तक के मुखपृष्ठ पर दिया गया फोटो मेरी धर्मपत्नी का है इस आवरण को मेरी पुत्री अल्पना आदित्य ने बनाया था जो आजकल इण्डिया टुडे ग्रुप में सीनियर डिजाइनर है.

मेरे ब्लॉग के पाठकों की सेवा में इस पुस्तक का आमुख गीत दे रहा हूँ.


मैं जलाता हूँ अनूठी वेदना के दीप

स्वप्न-रजनी को तुम्हारी कल्पना का भोर,
ले उड़ा था एक अद्भुत जागरण की ओर.
हँस पड़े थे ये अधर पाकर नयन-सन्देश,
तोड़कर अस्तित्व जाओगे न तुम परदेश.
पर निठुर नीली निशा ने छोड़कर वह तीर,
फिर बढ़ा दी आज मेरी भावना की पीर.
छोड़कर मेरा क्षितिज क्यों छू लिया आकाश,
धूल के कण में मिला दी एक टूटी आश.
रह गयी बस चाह मिटने की न कुछ अनुराग,
रश्मियों से भर चुका हूँ चाँदनी की माँग.
मोतियों से रिक्त होती जा रही यह सीप,
मैं जलाता हूँ अनूठी वेदना के दीप.

रह न जाये फिर कहीं मेरी अधूरी साध,
शिथिल पैरों को बढ़ाता जा रहा निर्वाध.
किन्तु फिर भी पन्थ पर आता सतत अटकाव,
रोक लेता जो व्यथा के नित्य परिचित भाव.
विघ्न से मत हो विकल तेरा यही परिणाम,
है न पल भर भी तुझे मिलना यहाँ विश्राम.
बह सको जितना बहो हे उर्मियों के नीर,
शान्ति मिलनी है तुम्हें बस एक तट के तीर.
अलि! न कह देना किसी से विवश मन की बात,
अन्यथा होगा न जीवन में सुनहला प्रात.
आँसुओं से आज देहरी-द्वार-आँगन लीप,
मैं जलाता हूँ अनूठी वेदना के दीप.

Tuesday, October 2, 2012

Lalita Ke Aansoo (English Translation of Hindi Epic)


Tears Of Lalita
(English translation of Lalita Ke Aansoo)

Originally this epic was published in 1978 in Hindi. I translated it into English and got it published in 1984 for the first time in India by Kimva Prakashan Moradabad.

Here I am posting the introductory chapter. Its original Hindi version was posted earlier on 11th of January 2012.

P.S. I am pleased to inform that this Epic "Lalita Ke Aansoo"was ranked 86th amongst Top 100 Epics Of The World.

TRIBUTE : DEDICATION

O sacred symbol of propriety! O celestial dwelling of humanity!
O peerless man of present History! Shastri! I salute your sovereignity!!

You saw tomorrow of motherland, and did not care for your life's today.
This were you, who never ignored; the call of human-heart anyway.

You saw the luster of shining stars, and not only looked at desolate sky.
You endured deep disaster of autumn, and did not entangle with spring's eye.

You always revered intellect, no doubt; and never venerated before any image.
You collided thoughout life for doctrines, and did not destest with religious phase.

You learned to walk on burning embers, with bare feet and smiling face.
You always learned to nourish properly, in every scarcity of life and race.

You called indigence a boon, not curse; and left no scope for any conscience.
You saw from within the cottage even, and not only looked at big mansions.

You incarnated on earth as scientist, to search the truth, faith and composure.
You never looked at external cover, but saught its internal shining lusture.

You not only got the delicate love, of Shrimati Lalita Shastri,your wife.
You also got the fondling of mother, Ram Dulari throughout your life.

You drove the chariot of statecraft, but could'nt succeed to get its goal.
You were of course done to death, and could'nt return your land with soul.

You did not die but became eternal, this firm belief I do have but.
The slogan "Jai Kisan" was left undone, now who is there to look after it?

You were the smiling rosy blossom, but blighted in the scorching sun.
You aimed the arrow right at target, but missed the game in the last run.

The way that was not left in battle, how it was abondoned in the peace!
The heart that was so solemnised, then say, how it was broken in twich!

This very question protrudes as doubt, in every mind and every heart.
But helpless history is still taciturn, it does not annotate somewhat.

The arduous problem that statesmen, could not solve in eighteen years.
Not even a single foe of India, could comlicate you due to fear.

This were you who solved that problem, within the eighteen months of rule.
The entire forces had fallen over enemy, what a fire you have fired in the fuel!

Within short period of your regime, the country roared in its full range.
Wherever you casted your distinct vision, blood of youths accepted the challange.

At the rending time of your departure, surface of earth was wet with tears.
Even the holy history was oozed, with the tributes sent from all spheres.

O Lal Bahadur! brave son of soil! on your all the time departures date.
This little book with agrrieved heart, to Shrimati Lalita, I dedicate.

11 January 1978 Vijay Ghat New Delhi India   *Krant M.L.Verma

Friday, September 28, 2012

Bhagat Singh in Nalgadha

जन्मदिन पर विशेष:

नलगढ़ा (नोएडा) में भगतसिंह

"सर देकर जो दार पर,
कहलाये सरदार.

मुँह तो उज्ज्वल कीजिये,
सरदारों का यार !" 



मित्रो! गत वर्ष मैंने इस ब्लॉग पर अमर शहीद पण्डित रामप्रसाद 'बिस्मिल' के भूमिगत जीवन के बारे में एक पोस्ट लिखी थी.

इस बार क्या अद्भुत संयोग है कि मुझे आज एक ऐसे पवित्र स्थान को देखने का सौभाग्य मिला जिसके बारे में केवल कुछ समाचार पत्रों में पढ़ा था प्रत्यक्ष देखा न था. पेश है उसकी एक संक्षिप्त रिपोर्ट:

सन १९१८ में "मैनपुरी काण्ड" करके बिस्मिल ने दिल्ली के समीप यमुना व हिन्डन नदी के मध्य स्थित बीहडों में शरण ली थी और यहाँ के एक छोटे से गाँव रामपुर जागीर के गूजरों के जानवर चराये थे उसके बाद वे यहाँ से कोसमा अपनी बहन के घर चले गये. इस बात को जब उन्होंने अपनी क्रान्तिकारी पार्टी के लोगों को बताया तो उन्हें यह स्थान छुपने के लिये सबसे ज्यादा सुरक्षित लगा.

आजकल जहाँ "नोएडा-ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस वे" बन चुका है उससे बिलकुल सटे एक छोटे से गाँव नलगढ़ा में ग्रेटर नोएडा आर्य समाज की ओर से सरदार भगतसिंह के जन्मदिन पर एक यज्ञ का आयोजन किया गया जिसमें उन्होंने वक्ता के रूप में मुझे भी आमन्त्रित किया था. कार्यक्रम के दौरान आर्यदीप पब्लिक स्कूल के स्वामी बिजेन्द्र आर्य जी ने जब यह बात बतायी कि 'क्रान्त' जी यही वह गाँव है जहाँ कभी पण्डित रामप्रसाद 'बिस्मिल', चन्द्रशेखर आज़ाद, सुखदेव, राजगुरु और भगतसिंह आदि अनेक क्रान्तिकारी छुपकर बरतानिया हुकूमत के दौरान अपनी योजनायें बनाया करते थे. केवल इतना ही नहीं, उन्होंने दिल्ली असेम्बली में जो बम फेंका था फेंकने से पूर्व उस जैसे अनेकों बम बनाकर उनका परीक्षण भी इसी जगह किया था. वह पत्थर जिस पर रखकर उस बम का परीक्षण किया था वह इस गाँव के कुछ सरदार लोगों ने आज भी सुरक्षित रखा हुआ है.

मेरी उत्सुकता यह बात सुनकर और भी अधिक बढ़ गयी तो वे लोग मुझे गुरूद्वारे में ले गये. मैंने पहले गुरूद्वारे जाकर पूरी श्रद्धा से पवित्र गुरु ग्रन्थ साहब को नमन किया फिर उस पत्थर को देखने की इच्छा प्रकट की.

मेरे साथ बीटावन  सेक्टर की आर.डब्लू.ए. के महामन्त्री हरीन्द्र भाटी अध्यक्ष देवेन्द्र टाइगर, आर्य समाज ग्रेटर नोएडा के रामेश्वर सरपंच, पूर्व न्यायाधीश जयप्रकाश नागर, देवमुनि जी, जनमेजय शास्त्री, धर्मवीर प्रधान व नलगढ़ा गाँव के सरदार सुखदेवसिंह, श्रीमती सुरजीत कौर,  जसपालसिंह, महेन्द्रपाल सिंह व अन्य कई लोग थे. मैंने उस पत्थर को बड़े ध्यान से देखा और उसके कई कोणों से फोटो लिये. उन फोटुओं को यहाँ इस ब्लॉग पर दे रहा हूँ.
बिजेन्द्र आर्य ऊँगली के इशारे से पत्थर के एक साइड में बने गड्ढे को दिखाते हुए.
परीक्षण के दौरान बम-विस्फोट से यह गड्ढा काला हो गया साफ़ दिखायी देता है.
इसी पत्थर की दूसरी साइड में बना हुआ लगभग उसी आकार का एक और गड्ढा.
पत्थर के ऊपरी सिरे पर बारूद बनाने का वह स्थान जिस पर शोरा, गन्धक व इमली का कोयला रखकर उसको चटनी की तरह पीसकर बारूद तैयार होता था.

पत्थर को देखते हुए कार्यक्रम में पहुँचे अन्य लोगों की तस्वीर भी ले ली  जिससे पत्थर की लम्बाई, चौड़ाई व मोटाई का सरसरी तौर पर अनुमान लगाया जा सके.

इस पत्थर को बड़ी बारीकी से देखने के बाद लगा कि यह तो पुरातत्व विभाग के लिये नितान्त शोध की वस्तु है. निस्संदेह यह पत्थर पोखरण के उस मैदान से भी अधिक महत्व का है जहाँ मिसाइलमैन ए.पी.जे. अब्दुल कलाम और अटलबिहारी वाजपेयी जी की उपस्थिति में भारत ने कभी परमाणु परीक्षण करने का पहली बार साहस किया था. और अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसियों को इसकी भनक तक नहीं लगने दी थी.

नलगढ़ा में जो गुरुद्वारा है उसकी चहारदीवारी से सटाकर सुरक्षित रखे गये इस पत्थर का ऐतिहासिक व पुरातात्विक महत्व है. क्या केन्द्र अथवा राज्य सरकार इस स्थल को संरक्षण प्रदान करेगी या केवल सत्तारूढ़ नेताओं की छवि बनाने में ही जुटी रहेगी? फिर चाहे वह नेहरू-गान्धी परिवार हो, सुश्री मायावती हों या कोई और?

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टिप्पणी:  दार माने फाँसी का तख्ता

Friday, September 21, 2012

Problem with the country "INDIA"

सूरते-हाल

कथनी औ' करनी में कितना फ़र्क है!
इसीलिये तो देश हमारा नर्क है!!

स्वार्थ-भाव की कीमत जिसको चाहिये,
उसको कहिये-"आप यहाँ से जाइये!"
जिन्दा है वह कौम जिसे यह भान है,
भाईचारा ही समाज की जान है!!

भाई-भाई में हो रहा कुतर्क है!
इसीलिये तो सबका बेड़ा गर्क है!!

राष्ट्र-धर्म से किसको कितना मोह है?
शासन नहीं, कुशासन का यह द्रोह है!
कूट-नीति छल-नीति प्रभावी हो रही,
राजनीति में 'माया' हावी हो रही!!

देश-प्रेम का मन्त्र किसे अब याद है?
इसीलिये तो घर का घर बरवाद है!!

प्रतिभायें सब यहाँ उपेक्षित हो रहीं,
छद्म-नीतियाँ पथ में काँटे बो रहीं!
धैर्य,धर्म,मित्रता और गृहस्वामिनी,
कुछ भी हो पर हमें न इनकी माननी!!

हठधर्मी का प्रचलन चारो ओर है!
इसीलिये तो 'धर्म' हुआ कमजोर है!!

बुद्धिमान लोगों को यह क्या हो गया?
सुविधाओं में उनका पौरुष खो गया!
अर्थ-लोभ में इतने अन्धे हो रहे,
स्वार्थ-सिद्धि में काले-धन्धे हो रहे!!

यश-प्रसिद्धि में सिद्धि-साधना मौन है!
सिद्धों को अब यहाँ पूछता कौन है??

कभी विश्व-कुल-गौरव था निज देश यह,
घर-घर में पहुँचाया था सन्देश यह---
"सकल विश्व को श्रेष्ठ बनायें आर्य-जन,
भूखा नंगा रहे न कोई भी स्व-जन!!"

किन्तु आज उस आर्य-मन्त्र का क्या हुआ?
इसीलिये है देश आज पिछड़ा हुआ!!

युगों-युगों से हम चिल्लाते आ रहे,
फाड़-फाड़ कर गला बताते आ रहे-
"सकल सिद्धियों का साधन जो 'धर्म' है,
उसी 'धर्म' में निहित तुम्हारा कर्म है!!"

धर्म-कर्म को लोग नहीं अपना रहे!
इसीलिये तो मात हर जगह खा रहे!!

Friday, September 14, 2012

New Slogan for India


हिन्दुस्तान का नया नारा

नेताजी ने हिन्द के, लिये कहा-"जय हिन्द!"
आओ हम मिलकर कहें-"जय हिन्दी! जय हिन्द!!"

कहें 'क्रान्त' इसमें अगर, "जय हिन्दू!" जुड़ जाय!
अपना हिन्दुस्तान यह, विश्व-गुरू बन जाय!!

आज हिन्दी -दिवस पर इस नवीन नारे के साथ विश्व के समस्त भारतवासियों को शुभ कामनायें!

New Message to Contrymen on Hindi Divas

यह हिन्दी है धर्म-ध्वजा अपनी!

जब देश स्वतन्त्र हुआ अपना तब ऐसी यहाँ कोई बात न थी,
हम एक थे भाषा के प्रश्न को लेकर नेताओं में भी दुभाँति न थी;
कथनी-करनी का जो फ़र्क बढ़ा उसने ही समस्यायें पैदा करीं,
अंग्रेजों के राज में देश की भाषा विदेश की भाषा के साथ न थी.

बड़े भाग से मानुस जोनि मिली इसे कर्म प्रधान बनाये रहो,
जहाँ कर्म सही वहाँ धर्म सही इस बात को ध्यान में लाये रहो,
इस देश में हिन्दी के जन्म-दिवस पे है 'क्रान्त' का नम्र-निवेदन ये -
"यह हिन्दी है धर्म-ध्वजा अपनी इस हिन्दी को आप उठाये रहो!"

Thursday, September 13, 2012

Father of Hindi

हिन्दी-दिवस (१४ सितम्बर) की पूर्व संध्या पर
भारत रत्न बाबू पुरुषोत्तमदास टण्डन जी को
शब्द सुमनांजलि

जो जला राष्ट्र भाषार्थ लौ की तरह, उस समर्पित शिखा को हृदय से नमन;
आइये आज हिन्दी-दिवस पर करें, उसके संकल्प का कर्ममय आचमन!!

वज्र सी अस्थियाँ वर्फ़ सी गल गयीं, स्वर्ण-काया पिघल मोम सी जल गयी;
किन्तु सिद्धान्त से जो न विचलित हुआ,अन्ततः पूर्ण करके दिखाया वचन!

स्वयं टकरा गया जाके चट्टान से, पुण्य-सलिला उठा लाया नभ-मान से;
राष्ट्र-भाषा-कमण्डल में ला रख दिया, जिसने हिन्दी को उस राज-ऋषि को नमन!

आइये! आज हम आप सब मिल करें,
उस तपस्वी के जीवन सा ही आचरण!

जिसने हिन्दी को गौरव से मण्डित किया, राष्ट्र-भाषा से स्वर को प्रचण्डित किया;
जो दिलाकर गया मान्यता विश्व में, उसका निश्छल हृदय से करें स्मरण!

आज हम राष्ट्र-भाषा के प्रतिप्रश्न पर, मौन साधे हुए हैं न होते मुखर;
कितने षड्यन्त्र अब तक रचे जा चुके, किन्तु हम सो रहे तान चादर सघन!

आइये! आज के इस ज्वलित प्रश्न पर,
हम सभी बैठकर कुछ करें आकलन!

है कहीं पर असमिया कहीं बांगला, दूसरी प्रान्त-भाषा बनीं अर्गला;
राष्ट्र-भाषा बिचारी खड़ी द्वार पर सर पटक कर रही है सिसककर रुदन!

कुछ तो संकल्प लें कुछ विचारें सभी, अन्यथा यह समस्या बनेगी कभी;
फिर मनेगा न हर साल "हिन्दी-दिवस", फिर न समिधा मिलेगी न होगा हवन!

आइये! वज्र-निर्माण हित हम करें,
शेष उन अस्थियों का पुनः संचयन!! 

नोट: यह कविता मैंने १४ सितम्बर १९८२ को राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन जन्म-शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में लिखी थी और राष्ट्र भाषा हिन्दी प्रचार समिति मुरादाबाद के तत्वावधान में आयोजित
हिन्दी दिवस समारोह में प्रस्तुत की थी व समिति की स्मारिका "संकल्पिका" में प्रकाशित कर दिल्ली में आयोजित तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन में सभी प्रतिनिधियों को वितरित की थी. अखिल भारतीय स्तर पर इस कविता को  प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था. अपने ब्लॉग के सुधी पाठकों की सेवा में प्रस्तुत है. एक निवेदन और ऊपर टण्डन जी का जो चित्र दिया गया है वह मैंने http://bharatmatamandir.in/blog/2010/04/26/purushottam-tandon/ वेबसाइट से साभार कापी करके यहाँ दिया है. मैं उस वेबसाइट निर्माता  के प्रति अपनी विनम्र कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ.... 

Tuesday, September 11, 2012

No Lokpal! Now Thokpal!!

ना लोकपाल! 
ना जोकपाल!!
अब होना चहिये  ठोकपाल?
(नुक्कड़ गीत)


ना लोकपाल ना जोकपाल
अब होना चहिये ठोकपाल
क्या कहा आपने ठोकपाल?
हाँ ठोकपाल, जी! ठोकपाल!!

अठारह सौ पच्चासी में अंग्रेज ने इसे बनाया था
था ए०ओ० ह्यूम नाम उसका जिसने यह नाम सुझाया था.

इसका था केवल काम साल में एक बार जलसा करना.
वह भी पच्चीस दिसम्बर को अंग्रेजों  का हुक्का भरना.

उस दिन छोटी मोटी "अर्जी"  लिखकर के ये दे देते थे.
उसके बदले "महरानी" से ये मोटा पैसा लेते  थे.

इन  कांग्रेसियों को जनता "अर्जीदिहन्द " बतलाती थी.
"ये अंग्रेजों के चमचे हैं" कहकर खिल्लियाँ उड़ाती थी.

फिर "लाल" "बाल" और "पाल" सरीखे कुछ कद्दावर घुस आये.
"हम लेंगे अभी स्वराज" धमकियाँ अंग्रेजों को भिजवाये.

धमकी से घबराकर उन सब अंग्रेजों का था बुरा हाल.
दक्षिण अफ्रीका से बुलवाया गान्धी जी को बना ढाल.

इनका था पहला लोकपाल, हाँ लोकपाल जी लोकपाल.

उन्नीस सौ सैंतालिस में जब अंग्रेज यहाँ से गये भाग.
तो अपने इन्हीं दलाल बन्दरों के हाथों दे गये आग.

वह आग "करप्शन" की इन सबने घर-घर ऐसी पहुँचा दी.
अब उसे बुझाओ तो लगता है टूट न जाये यह शादी.

जनता व्याकुल हो सोच रही इस आग से कैसे बचे खाल?
बन गयी गले की यह हड्डी कम्बख्त पार्टी बेमिसाल.

कोयला-करप्शन-काँग्रेस इन सबकी है इक "मिथुन" राशि.
इतना "मैथुन" कर रहे देखते नहीं कि दिन है या कि राति.

गान्धी बाबा की लाठी ही है पास तुम्हारे एक अस्त्र.
कुछ करो अन्यथा ये तो सबके सब उतारने लगे वस्त्र.

"है नंग बड़ा परमेश्वर से" अब तो ये चलने लगे चाल.
इसलिये कह रहा हूँ यारो! अगला चुनाव हो बेमिसाल.

इनकी ना एको गले दाल, इसका रखना पूरा ख़याल.
अब ठोकपाल बस ठोकपाल, ईवीएम पर हो ठोकपाल.

यदि अबकी गलती करी तो फिर, पछताओगे चारसौ साल.
ना लोकपाल ना जोकपाल, अगले चुनाव में ठोकपाल.

हाँ! ठोकपाल!! जी! ठोकपाल!!   

 


Thursday, August 30, 2012

LK Advani's Blog

LK Advani's Blog

SPECULATIONS ABOUT CONGRESS’ FATE IN 2014

श्री अडवाणीजी ने ब्लॉग में गलत क्या कहा जो मीडिया में इतनी हाय तौबा !!मित्रो! मैं श्री अडवाणी जी के तर्क से शत प्रतिशत सहमत हूँ उन्होंने आँकड़े देकर भारतीय जनसंघ से लेकर वर्तमान जनता पार्टी तक के सांसदों की लोकसभा में बढ़तीं हुई लोकप्रियता को उल्लेखनीय सिद्ध भी किया है और भावी चुनाव में उसकी उपादेयता की ओर संकेत भी.

अभी २०१४ के चुनाव में सवा साल शेष है यदि अडवाणीजी  कृष्ण की तरह भाजपा के मार्गदर्शक सारथी बनकर नयी भूमिका में जनता के समक्ष जाएँ तो मुझे पूर्ण विश्वास है कि अगला प्रधानमंत्री भाजपा का ही बन सकता है एक वार बहुसंख्यक समाज को उत्साहित करने की आवश्यकता है.

डॉ.मदनलाल वर्मा 'क्रान्त'

Monday, August 27, 2012

CONGRESS V/S CAG

काँग्रेस वनाम सीएजी

सीएजी ने पेश की, ज्यों ही छपी रिपोर्ट;
मौसेरे भाई सभी, करने लगे सपोर्ट.
करने लगे सपोर्ट, कोर्ट में है सब लेखा;;
संसद में क्या हुआ, जमाने भर ने देखा.
कहें 'क्रान्त' कोई इनसे, पूछे तो ए जी!
वैधानिक संस्था नहीं है, क्या सीएजी?

लक्षण है स्वीकारना, मौन रहें यदि आप;
पीएम ने सचमुच वही, किया आज चुपचाप.
किया आज चुपचाप, गले से बला टाल दी;
गेंद स्वयं ही उनके पाले में उछाल दी.
कहें 'क्रान्त' अब हो जायेगा शक्ति परीक्षण;
हमको तो दिख रहे यही, संसद के लक्षण.

Baba verses Congress

रामदेव का क्रान्ति उद्घोष

बाबा ने जबसे शुरू, किया क्रान्ति-उद्घोष;
काँग्रेस को आ रहा , है रह-रह कर रोष.
है रह-रह कर रोष, कोष को लूट रहे हैं;
जनता का रुख देख, पसीने छूट रहे हैं.
कहें 'क्रान्त' हो गया, भ्रष्ट आवे का आवा;
'काँग्रेस', अगले चुनाव में? ना ना बाबा!!

Sunday, August 5, 2012

SPECULATIONS ABOUT CONGRESS’ FATE IN 2014 | Sri LK Advani's Blog

SPECULATIONS ABOUT CONGRESS’ FATE IN 2014 | Sri LK Advani's Blog
श्री अडवाणीजी ने ब्लॉग में गलत क्या कहा जो मीडिया में इतनी हाय तौबा !!
मित्रो! मैं श्री अडवाणी जी के तर्क से शत प्रतिशत सहमत हूँ उन्होंने आँकड़े देकर भारतीय जनसंघ से लेकर वर्तमान जनता पार्टी तक के सांसदों की लोकसभा में बढ़तीं हुई लोकप्रियता को उल्लेखनीय सिद्ध भी किया है और भावी चुनाव में उसकी उपादेयता की ओर संकेत भी.

अभी २०१४ के चुनाव में सवा साल शेष है यदि अडवाणीजी  कृष्ण की तरह भाजपा के मार्गदर्शक सारथी बनकर नयी भूमिका में जनता के समक्ष जाएँ तो मुझे पूर्ण विश्वास है कि अगला प्रधानमंत्री भाजपा का ही बन सकता है एक वार बहुसंख्यक समाज को उत्साहित करने की आवश्यकता है.

डॉ.मदनलाल वर्मा 'क्रान्त'
http://www.krantmlverma.blogspot.com
http://blog.lkadvani.in/blog-in-english/speculations-about-congress%e2%80%99-fate-in-2014?utm_source=feedburner&utm_medium=feed&utm_campaign=Feed%3A+ShriLalKrishnaAdvaniBlog+%28Shri+Lal+Krishna+Advani%27s+Blog%29&utm_content=FeedBurner#respond

Tuesday, July 31, 2012

Fruits of family

पारिवारिक दोहे


पहले होते थे यहाँ, बड़े बड़े परिवार.
जहाँ सीखते थे सभी, आपस में व्यवहार.

पति-पत्नी माता-पिता, सास-ससुर सम्बन्ध.
सबका था परिवार में, पारस्परिक प्रबन्ध.

परम्परा थी आपसी, सम्बन्धों की लीक.
उस पर चलते थे सभी, वही प्रथा थी ठीक.

पहले दूजे को खिला, फ़िर खाते थे आप.
त्याग दूसरे के लिये, करते थे चुपचाप.

रिश्तों की थी उस समय, बहुत बड़ी जंजीर.
चाचा-ताऊ की कड़ी, थी कितनी गम्भीर.

रिसने लगा मनुष्य से, जब आपसी लगाव.
वैमनस्य की भावना, से उपजा अलगाव.

रिश्तों में थी वाकयी, कितनी बड़ी मिठास.
मौसी-मौसा के लिये, मन में था विश्वास.

रिश्ते-नाते तोड़कर, तोड़ दिया परिवार.
बच्चोँ पर माँ-बाप तक, आज हो गये भार.

वाद हुआ हावी यहाँ, पिछड़ गया सम्वाद.
इसके कारण बढ़ गये, झगड़े और फसाद.

वाह पश्चिमी सभ्यता, खेला कैसा खेल.
परिवारों के वृक्ष को, लील गयी विष-बेल.

वार किया कितना बड़ा, सह न सकी तलवार.
मूठ हाथ में रह गयी, टूट गया परिवार.

वाहक था जो धर्म का, अर्थ आदि व्यापार.
आश्रित था जिस पर वही, रहा न अब परिवार.

रही न अपनी सभ्यता, रहा न अपना वेष.
आज़ादी ऐसी मिली, टूट गया परिवेश,

रहते थे जिसमें सभी, मिल-जुल होकर एक.
आज उसी परिवार के, टुकड़े हुए अनेक.

रखना है अब भी अगर, संस्कृति का सम्मान.
तो रक्खो परिवार में, इक-दूजे का ध्यान.

रहें सभी परिवार में, हिल-मिलजुल कर आज.
बना रहेगा विश्व में, अपना सभ्य समाज.

Friday, June 29, 2012

Ram Prasad Bismil - a patriot, poet & revolutionary

Rare photo of Ram Prasad Bismil
Ram Prasad Bismil (11 June 1897 - 19 December 1927)[1] was an Indian revolutionary who participated in Mainpuri Conspiracy of 1918, and the Kakori conspiracy of 1925, both against British Empire. As well as being a freedom fighter, he was also a patriotic poet. Ram, Agyat and Bismil were known as his pen names which he used in Urdu and Hindi poetry.[2] But, he became popular with the last name "Bismil" only. He was associated with Arya Samaj where he got inspiration from Satyarth Prakash, a book written by Swami Dayanand Saraswati.[3] He also had a confidential connection with Lala Har Dayal through his guru Swami Somdev, who was a renowned preacher of Arya Samaj.
Bismil was one of the founder members of the revolutionary organisation Hindustan Republican Association. Bhagat Singh praised him as a great poet-writer of Urdu and Hindi,[4] who had also translated the books Catherine from English and Bolshevikon Ki Kartoot from Bengali. Several inspiring patriotic verses are attributed to him. The famous poem "Sarfaroshi ki Tamanna" is also popularly attributed to him, although some progressive writers have remarked that 'Bismil' Azimabadi actually wrote the poem and Ram Prasad Bismil immortalized it.[5]

Contents

 [hide

Early life

Ram Prasad Bismil was born to Murlidhar and Moolmati at Shahjahanpur in Uttar Pradesh on 11 June 1897. His grand father Narayan Lal belonged to Tomardhar area of earstwhile Gwalior estate and lived in Barbai village of Morena District in Madhya Pradesh. This rural area was adjacent to the British administered Central Province called Chambal valley. Its residents were so fearless, sturdy and brave that they never paid any land revenue to the collecter. The British government tried so many times but failed. Lastly they were exempted to pay any land revenue by the administration.
His father Murlidhar was an employee in the Municipal Board of Shahjahanpur. Having been tired of service for a long time he left the job and started lending money on interest to the needy persons. He had also hired out some own bulluck carts for the family's livelyhood. His first issue was a son who expired after a few days. Next issue being a son was very dear to everyone in the family. The mother and others called the child as Ram with love.
When the boy entered seventh year of age, his father started teaching him Hindi. But he did not learn Hindi for writing the alphabet "U" since it was taught as "U" for "Ulloo" (en: "Owl"). He always opposed and was beaten badly by his father. Later he was sent to a Moulvi to learn Urdu. When he picked up the basic knowledge of Urdu language, he was admitted to a school. He cleared the fourth standard in Urdu by reaching a teenager. Till then the habit of reading Urdu novels had taken hold of him. He needed money to buy the novels, but not given by parents so he started stealing money from his father’s safe. When Murlidhar knew about the stealing habits of his son he immediately changed the lock of the safe. The child had also become a chain smoker and started using bhang. As a result he failed in the examinations.
When he failed twice in 7th standard of Urdu Murlidhar decided not to send him to any school. Ram Prasad expressed his desire to join an English school but his father was not agree at all. Then he saught the help of his mother, who but supported to make him enable to join an English school.
Thus, he was admitted to the Mission School of the city where he found a good friend Chandra Sen. Under the company of Sushil Ram Prasad gave up smoking and became a studious boy. After passing 8th standard from this school in First Division, he was sent to the Government School of Shahjahanpur for further studies.

Contact with Swami Somdev

Munshi Indrajeet, the secretary of Arya Samaj Shahjahanpur once saw young Ram Prasad performing worship at a temple. He took Ram Prasad to Arya Samaj, taught him the Sandhya and Hawan (the traditional vedic system of prayer). He also described him the principles of Arya Sarmaj and gave him Sathyarth Prakash a wook written by Swami Dayanand Saraswati. This book influenced him deeply. Realizing the importance of Brahmchary, Ram Prasad practiced it in word and spirit. He gave up the evening meal. He also gave up savory and sour dishes and even the use of salt. The practice of Brahmchary and regular exercises made his face radiant and the body strong as steel.
At that time, Swami Somdev, a preacher of Arya Samaj, came to Shahjahanpur and stayed there to improve his health. He had become very weak due to loss of blood. Young Ram Prasad devoted himself to the service of Swami Somdev. Swami was proficient in Yoga too. He gave some good books to Ram Prasad for reading. Under the guidance of Swami Somdev, the views of Ram Prasad became more clear on religious and political issues. In the mean time, Bhai Parmanand was sentenced to death in - the Lahore Conspiracy case. Bhai Parmanand had written a book "Tavarikh - e -Hind" (en: History of Hindustan). Ram Prasad read the book and appreciated it immensely. He came to admire Parmanand. When he heard about the death sentence of Bhai Parmanand through Swami Somdev, his blood boiled and he took a vow that he would settle scores with the British Government for this grave injustice and told Swamiji about his vow. He remarked: " Ram Prasad! It is easy to take a vow but hard to keep it." Hearing these comments from Swamiji, Ram Prasad touched the feet of Somdev and declared: "If I have the grace of these sacred feet, my vow will surely be fulfilled; nothing can come in the way." This was the first step in the revolutionary life of Ram Prasad[6].

Lucknow Congress

While studying in the ninth standard Ram Prasad was very active as an enthusiastic volunteer in the Shahjahanpur Seva Samiti. The annual session of Indian National Congress was to be held at Lucknow. There were two groups in the Congress at that time. One group consisted of liberals, who were opposed to any direct action against the British Government and the other group was that of extremists who believed in fighting the British Government and attaining full independence. Lokmany Bal Gangadhar Tilak was their leader. Tilak was expected to participate in the session and so the extremists had gathered there in large numbers. Ram Prasad also went to Lucknow along with his friends where he saw a majority of the liberal group was in the Reception Committee.
They had not made any elaborate arrangements to welcome Tilak. He was just to be received at the railway station. But the young men desired that Tilak should be taken in a procession through the city. With a student of the M. A. class as their leader they gathered at the rai1way station. As soon as Tilak got off the railway carriage, the volunteers of the Reception Committee surrounded him and took him to the waiting car. The M.A. student and Ram Prasad leaped forward and laid in front of the car and shouted: "If the car is to move, let it move over our bodies." The members of the Reception Committee and Tilak himself tried to dissuade them but they didn’t budge. Their friends hired a coach, set free the horses and then drew the coach by hands. Tilak was made to sit in the coach and taken in a procession. All along the way flowers were showered on Lokamanya Tilak.
After the Lucknow session Ram Prasad organised a group of youths and decided to publish a book in Hindi under the title America Ki Swatantrata Ka Itihas (en: History of American independence), with the consent of Somdev. This book was published under the authorship of the fictitious Babu Harivans Sahai. and its publisher's name was given as Somdev Siddhgopal Shukla. As soon as the book was published, the government of Uttar Pradesh proscribed its circulation within the state[7].

Revolutionary actions in Mainpuri

Bismil formed a revolutionary organization in the name of Matrivedi (en: altar of motherland) and contacted Genda Lal Dixit who was previously a school teacher at Auraiya. Reference of Dixit was given to Bismil by his mentor Som Dev[8]. Till then, Bismil had collected some weapons also. Som Dev knew that Bismil could be more offensive in his mission if a matured and experienced person supported him. Genda Lal had contacts with some powerful revolutionaries of the state and he wanted to utilize their power in the armed struggle against the British rulers.
Like Bismil, Dixit too had formed an armed organisation of youths called Shivaji Samiti[9]. When Bismil told Dixit that his ancestors belonged to the notorious area of Central Province known for bravery, Dixit was happy and he accepted the offer. After that they organised youths of Etawah, Mainpuri, Agra and Shahjahanpur districts of United Province (now Uttar Pradesh) to strengthen the organisation.

Absconded from Delhi Congress

On 28 January 1918, Bismil published a pamphlet titled Deshvasiyon Ke Nam Sandesh (en: a message to countrymen), which he distributed along with his poem Mainpuri Ki Pratigya (Vow of Mainpuri).[10] In order to collect funds for the party looting was undertaken on three occasions in 1918. Police searched for them in and around Mainpuri while they were selling the books proscribed by the U.P. Government in the Delhi Congress of 1918. When police found them, Bismil absconded with the books unsold. When he was planning another looting between Delhi and Agra, a police team arrived and firing started from both the sides. Bismil was very cautious: he jumped into the river Yamuna and swam underwater. The police and his companions thought that he had died in the encounter. Dixit was arrested along with his other companions and he was kept in Agra fort from which Dixit fled and lived underground in Delhi. A criminal case was filed against them. It is known as the "Mainpuri Conspiracy" against the British King Emperor. On 1 November 1919 the Judiciary Magistrate of Mainpuri B.S. Chris announced the judgement against all accused and declared Dixit and Bismil as absconders, because they could not be arrested by the police in spite of all efforts[11].

Underground activities

From 1919 to 1920 Bismil remained inconspicuous, moving around various villages in Uttar Pradesh and producing several books. During this period he made many Hindi translations of Bengali writings olso. Some of his works include[12]:
  • Man Ki Lahar (en: A Sally of the Mind) - a collection of poems written by him and others,
  • Yogic Sadhan - Hindi translation of Arbind Ghosh's book by Ram Prasad Bismil
  • Bolshevikon Ki Kartoot (en: The Bolshevik Programme) - translated from Bengala book Nihilisto Rahasya.
  • Catherine or Swadhinta Ki Devi - fabricated from an English text.
All of his works were published through his own resources under Sushilmala - a series of publications except one Yogik Sadhan which was given to a publisher of Benaras who absconded and could not be traced out.

Formation of Hindustan Republican Association

In February 1920, when all the prisoners in the Mainpuri conspiracy case were freed, Bismil returned to his native place Shahjahanpur. The District Magistrate and Superintendent of Police called him and asked to give an undertaking. Ram Prasad Bismil filed a written affidevit before the district authorities declaring therein not to participate in revolutionary activities. He got the job of a manager in the Bharat Silk Manufacturing Co of Shahjahanpur. Later he left the job and opened a shop of silk sarees in partnership with Banarsi Lal. Bismil and Banarsi became close friends and both of them got associated with the District Congress Committee of Shahjahanpur[13]. Despite making a good living from the business, Bismil remained discontented with the existence of British rule in India according to his autobiography.
Ahmedabad Congress 1921

 
In 1921, Bismil was among the many people from Shahjahanpur who attended the Ahmedabad Congress. He had a seat on the dias, along with the senior congressman, Prem Krishna Khanna, and the revolutionary, Ashfaqulla Khan. Bismil played an active role in the Congress with Maulana Hasrat Mohani and got the most debated proposal of Poorn Swaraj passed in the General Body meeting of Congress. Mohandas K. Gandhi, who was not in the favour of this proposal became quite helpless before the overwhelming demand of youths. It was another victory of Bismil against the Liberal Group of Congress.[14] He returned to Shahjahanpur and mobilised the youths of United Province for non-cooperation with the Government. The people of U.P. were influenced by the furious speeches and verses of Bismil and becoming hostile against British Raj.
In February 1922 some agitating farmers were killed in Chauri Chaura by the police. The police station of Chauri Chaura was attacked by the people and 22 policemen were burnt alive. Gandhi, without ascertaining the facts behind this incident,[15] declared an immediate stop the non-cooperation movement without consulting any executive committee member of the Congress. Bismil and his group of youths strongly opposed Gandhi in the Gaya session of Indian National Congress (1922). When Gandhi refused to rescind his decision, its existing president Chittranjan Das resigned and the Indian National Congress was divided into two groups - one liberal and the other for rebellion. In January 1923, the rich[16] group of party formed a new Swaraj Party under the joint leadership of Pt. Moti Lal Nehru and Chittranjan Das, and the youth group formed a revolutionary party under the leadership of Ram Prasad Bismil[17].

Yellow Paper constitution

With the consent of Lala Har Dayal, Bismil went to Allahabad where he drafted the constitution of the party in 1923 with the help of Sachindra Nath Sanyal and another revolutionary of Bengal, Dr. Jadugopal Mukherjee.[18] The basic name and aims of the organisation were typed on a Yellow Paper and later on a subsequent Constitutional Committee Meeting was conducted on 3 October 1924 at Kanpur in U.P. under the Chairmanship of Sachindra Nath Sanyal.
This meeting decided the name of the party would be the Hindustan Republican Association (HRA). After a long discussion from others Bismil was declared there the District Organiser of Shahjahanpur and Chief of Arms Division. An additional responsibility of Provincial Organiser of United Province (Agra and Oudh) was also entrusted to him. Sachindra Nath Sanyal, was anonymously nominated as National Organiser and another senior member Jogesh Chandra Chatterjee, was given the responsibility of Coordinator, Anushilan Samiti. After attending the meeting in Kanpur, both Sanyal and Chatterjee left the U.P. and proceeded to Bengal.[19] for further extension of the organisation.

Publication of The Revolutionary

A four-page manifesto entitled The Revolutionary was published in January 1925, using the fictitious name of Vijay Kumar[20] Circulated all over India, it promised equal opportunity to every man irrespective of social status high or low, rich or poor. The policies of Mohandas Gandhi were criticised and youths were called to join the organisation. The police reacted by arresting Sachindra Nath Sanyal and Jogesh Chandra Chatterjee, who had been involved in its productions and distribution.

Objectives and ideology of HRA

The immediate objective of the HRA was to establish a "Federal Republic of the United States of India by an organised and armed revolution".[21] Armed struggle, terrorism and retaliatory strikes were the favoured tactics in the attempt to defeat the British Empire. Its manifesto declared:
"The Official terrorism is surely to be met with counter terrorism. A spirit of utter helplessness pervades every strata of our society and terrorism is an effective means of restoring the proper spirits in the society without which progress will be difficult.... This revolutionary party has deliberatly abstained itself from entering into this terrorist campaign at the present moment even at the greatest of the provocations in the form of outrages committed on their sisters and mothers by the agent of a foreign government simply because the party is waiting to deliver the final blow. But when expediency will demand it the party will unhesitatingly enter into a desperate campaign of terrorism, when the life of every officer and individual helping the foreign government will be made intolerable...."[22]
—"The Revolutionary" India 1 January 1925

Nationalisation of big sectors

In the manifesto their methodology and ideology was also clarified by saying that the final constitution shall be framed only when their representatives elected by the public will have the power to do so. In order to avoid the exploitation of a man by a man the party had proposed the nationalisation of big sectors, such as the railways, communication, mining, steel manufacture and shipbuilding.

Other aims

The HRA was socialist on the footprints of Indian sages in its attitude as its manifesto stated. Amongst other goals stated in the manifesto were Universal Suffrage, supremacy of the legislature and religious freedom.

Kakori conspiracy

After arrest of both the senior organiser of HRA total responsibility to run the party had come on the shoulders of Bismil. The District Organisers were demanding money. They were writing very sensitive letters to him: "Pandit Ji! we are dying with hunger, please do something." As a result he was feeling himself guilty for their pitiable condition.
He decided to collect money like Irish revolutionaries by stealing from the rich people of society. So he looted the money at Bichpuri in Pilibhit Distt. and at Dwarkapur in Pratapgarh district of U.P., but not enough money was received in either of these actions.
Bismil executed a meticulous plan for looting the government treasury carried in a train at Kakori, near Lucknow in U.P. This historical event happened on August 9, 1925 and is known as the Kakori conspiracy. Only ten revolutionaries stopped the 8 Down Saharanpur-Lucknow passenger train at Kakori - a station just before the Lucknow Railway Junction. German-made Mauser C96 semi-automatic pistols[23] were used in this action. Ashfaqulla Khan, the lieutenant of the HRA Chief Ram Prasad Bismil gave away his Mauser to Manmath Nath Gupta and engaged himself to break open the cash chest. Eagerly watching a new weapon in his hand, Manmath Nath Gupta fired the pistol and incidentally a passenger Ahmed Ali, who got down the train to see his wife in ladies compartment, was killed in this rapid action.[24]
The incident created a great upheaval in British India. The retribution was severe when more than 40 revolutionaries were arrested from all over India. As per official record of the British Government, a criminal conspiracy case was filed against 28 active members of HRA by the Special Magistrate Ainuddin after a long time. 21 persons were presented before Session Court of Special Judge A. Hamilton on 21 May 1926. Abbas Salim Khan, Banvari Lal Bhargava, Gyan Chattarji and Mohd. Ayuf were the assessors (legal advisers) of the Judge.[25]
Bismil, Ashfaq & Group Photo of all accused
 
On April 6, 1927 the verdict of court came out of the special court of Lucknow. This special court was established by the then British Government in the Ring Theatre. During the British rule, this Ring Theater was situated in between two important monuments - Kothi Hayat Baksh and Mallika Ahad's palace. This building was used by the Britishers for their entertainment. The English dramas were played and movies were screened. A board was put at the entrance which read "Dogs and Indians not allowed". The Kakori trial happened at this Theater. Govind Vallabh Pant, Chandra Bhanu Gupta, Mohan Lal Saxena and Kripa Shankar Hajela fought for the accused viz. Ram Prasad Bismil, Roshan Singh & Ashfaquallah Khan, etc. During the years 1929-1932 this Theater was transformed into the present General Post Office. It is situated on the main Vidhan Sabha Road, opposite to Capital Picture Hall and Christ Church of the main Hazratganj crossing. A stone embedded on the main gate of the GPO dates the buildings as 1929-1932[26]. Court's verdict in 115 pages was published by Nawal Kishore Press Lucknow wherein charges were proved with legal witness.
Another supplementary case was filed against Ashfaqulla Khan and Shachindra Nath Bakshi in the court of Special Sessions Judge J.R.W. Bennett. An appeal was filed in the then Chief Court of Oudh (now in U.P.) on 18 July 1927. A very senior advocate Pt. Jagat Narayan Mulla pleaded the case as public prosecutor on behalf of the Government whereas Ram Prasad Bismil defended his case himself. He did not take any help from the Government.
On 22 August 1927 the Chief Court endorsed the original judgement with an exception of one or two punishments. A mercy appeal was filed in due course before the Provincial Governor of U.P. by the members of legislative council which was dismissed. Bismil wrote a letter to Pt. Madan Mohan Malviya on 9 September 1927 from the Gorakhpur Jail.
Malviya sent a memorandum to the then Viceroy and Governor General of India Edward Fredrick Lindley Wood with the signatures of 78 Members of Central Legislature, which was also turned down. On 16 September 1927 the final mercy appeal was forwarded to Privy Council at London and to the King Emperor through a famous lawyer of England S.L. Polak[27] but the British Government, who had already decided to hang them, sent their final decision to the India office of Viceroy that all the four condemned prisoners are now to be hanged till death by 19 December 1927 positively.

Execution

In an 18-month long drawn case, Ram Prasad Bismil, Ashfaqulla Khan, Thakur Roshan Singh and Rajendra Nath Lahiri were sentenced to death under section 121(A), 120(B), 302 and 396 of Indian Penal Code. Bismil was hanged by the British authorities on 19 December 1927 in the morning at Gorakhpur Jail, Ashfaqulla Khan at the Faizabad Jail and Thakur Roshan Singh at Naini Allahabad Jail whereas fourth Rajendra Nath Lahiri was hanged on 17 December 1927 (two days before the scheduled date) at Gonda Jail; all located in the present Indian state of Uttar Pradesh.


Dead body of Bismil in father's lap
 

Last rites at Rajghat Gorakhpur

The dead body of Bismil was kept at Ghantaghar of Gorakhpur for the last view of the public in the City. From there it was taken to the Rapti river where the last funeral of this great martyr was performed under the proper Vedic Cremation System on the bank of the river. The place, where the ritual obligations of Bismil were done, was named by public as Rajghat.[28] A new Transport Nagar has been developed in the side bye area of this place. A Rajghat police station has also been established there to commemorate the historical place.

Statue of Bismil

Shaheed Smarak Samiti of Shahjahanpur established a memorial at Khirni Bagh mohalla of Shahjahanpur city where Bismil was born in 1897 and named it "Amar Shaheed Ram Prasad Bismil Smarak". A statue made of white marble was inaugurated by the then Governor of Uttar Pradesh Motilal Vora on 19 December 1994 on the 68th martyr's day of Bismil.

Literary works

Bismil was known for his poems that acted as motivation for his fellow revolutionaries. Among them, Sarfaroshi Ki Tamanna is the most well-known, though some  have claimed it was written by Bismil Azimabadi.

Translated into English by CID

The autobiography of Ram Prasad Bismil was also published by Ganesh Shankar Vidyarthi in 1928 which was proscribed by the then government of United Province. It was translated in English by the Criminal Investigation Department, United Province[29]


Kakori Memorial at Kakori

The Kakori is the place where 10 revolutionaries stopped a train and looted the British government's treasury which was being taken in the guard's cabin. A memorial of these revolutionaries has been established in this town.

Film adaptations/depictions

A lyric written by Ram Prasad Bismil was sung by Bhupinder Singh (musician) in a Bollywood film Aandolan which was released in 1977. Its music was given bu Jaidev. (please see it in the external links given below)
In the Bollywood movie The Legend of Bhagat Singh, Bismil is depicted as a visionary who ignites in Bhagat Singh the fire of freedom. The character was played by Ganesh Yadav.
In another film Rang De Basanti, Bismil was a more significant character played by Atul Kulkarni.
Some of the famous songs written by Bismil were also featured in Shaheed, a film by veteran film actor-director Manoj Kumar released in 1965. The chorus song Sarfaroshi Ki Tamanna was sung by Mohd. Rafi and others.

See also

Notes

  1. ^ http://www.freeindia.org/biographies/freedomfighters/bismil/index.htm
  2. ^ Man Ki Lahar page 88
  3. ^ Man Ki Lahar page 86-87
  4. ^ 'Krant'M.L.Verma/Sarfaroshi Ki Tamanna (Part-4)/page113
  5. ^ http://www.flonnet.com/fl2225/stories/20051216001407800.htm. Accessed March 22, 2008.
  6. ^ Man Ki Lahar,page 89
  7. ^ 'Krant' M.L.Verma, Sarfaroshi Ki Tamanna, Vol-3
  8. ^ http://sankalpindia.net/drupal/project-tiranga/revolutionary-actions-mainpuri
  9. ^ http://sankalpindia.net/drupal/project-tiranga/revolutionary-actions-mainpuri
  10. ^ Gupta Manmathnath Bhartiya Krantikari Andolan Ka Itihas page 99
  11. ^ Swadhinta Sangram Ke Krantikari Sahitya Ka Itihas, Vol-3, page 621-633
  12. ^ http://www.mapsofindia.com/who-is-who/history/ram-prasad-bismil.html
  13. ^ Dr.'Krant'M.L.Verma/Swadhinta Sangram Ke Krantikari Sahitya Ka Itihas/Vol-2/Page519
  14. ^ 'Krant'/Man Ki Lahar/page 95
  15. ^ Dr.'Krant'M.L.Verma/Swadhinta Sangram Ke Krantikari Sahitya Ka Itihas/Vol-1/Page262
  16. ^ Dr.Vishwamitra Upadhyay Ram Prasad Bismil Ki Aatmkatha N.C.E.R.T. Delhi Page57
  17. ^ 'Krant'M.L.Verma/Kranti Geetanjali/Page90
  18. ^ Dr. Mehrotra N.C. Swatantrata Andolan Mein Shahjahanpur Ka YogdanPage 109 & 146
  19. ^ 'Krant'M.L.Verma/Kranti Geetanjali/Page91
  20. ^ 'Krant'M.L.Verma/Sarfaroshi Ki Tamanna/Vol-1/Annexure-E/p.170-174
  21. ^ above book, p.171
  22. ^ above book, p.174
  23. ^ http://world.guns.ru/handguns/hg90-e.htm
  24. ^ Dr.'Krant'M.L.Verma/Swadhinta Sangram Ke Krantikari Sahitya Ka Itihas/Vol-1/Page 273
  25. ^ Dr.'Krant'M.L.Verma/Swadhinta Sangram Ke Krantikari Sahitya Ka Itihas/Vol-1/Page 283
  26. ^ https://sites.google.com/site/lucknowtravelguide/gpo-lucknow
  27. ^ Dr.'Krant'M.L.Verma/Swadhinta Sangram Ke Krantikari Sahitya Ka Itihas/Vol-1/Page 289
  28. ^ Madan Lal Verma 'Krant'/Sarfaroshi Ki Tamanna/Vol-1/Page 21
  29. ^ Asha Joshi Introductory page no 22 of the book RAM PRASAD BISMIL RACHANAVALI

References

  • Mehrotra, Dr. N. C.; Tandon, Dr. Manisha (1993) (in Hindi) Swatantrata Andolan Mein Shahjahanpur Ka Yogdan (1 ed.) Shahjahanpur India: Shaheed-E-Azam Pt.Ram Prasad Bismil Trust. 
  • Upadhyaya, Dr. Vishvamitra (1994) (in Hindi) Ram Prasad Bismil Ki Aatmkatha New Delhi: N.C.E.R.T. Publication. 
  • Sharma, Dinesh; Joshi (1991) (in Hindi) RAM PRASAD BISMIL RACHANAVALI (1 ed.) New Delhi: Sandarbh Prakashan 
  • Gupta, Manmathnath (1993) (in Hindi) Bhartiya Krantikari Andolan Ka Itihas (7 ed.) Delhi: Atmaram and Sons ISBN 81-7043-054-2 
  • Jagesh, Jagdish (1989) (in Hindi) Kalam Aaaj Unkee Jay Bol (1 ed.) Varanasi: Hindi Pracharak Sansthan 
  • Verma, 'Krant' Madan Lal (1998) (in Hindi) Krantikari Bismil Aur Unki Shayri (1 ed.) Delhi: Prakhar Prakashan pp. 87 OCLC 466558602