Tuesday, October 25, 2011

What a festival of Light?

यह कैसी दीवाली है?

अँधेरों की भुजाओं ने पकड़ रक्खी भुजाली है,
समझ में यह नहीं आता कि यह कैसी दीवाली है?

पड़ेगा किस तरह बोलो हमारे सोच में अन्तर,
कि पढ़-लिखकर भी जब अबतक हमारा बोल गाली है.

तिरंगा सोच में डूबा, उसे यह सोच ले डूबा;
गगन में किस तरह फहरे  कि जब कश्मीर खाली है.

हमें जब ख्बाव होता है, तभी पंजाब रोता है;
असम ने आँसुओं की धार आँखों में छुपा ली है.

वतन खुशहाल है अपना, ये मन टकसाल है अपना;
जरूरत के मुताबिक कर्ज की चादर बढ़ा ली है.

उन्हें है धर्म से नफरत, हमारी धर्म में शिरकत;
यही तो आंकड़ा ३६ का दोनों में सवाली है.

बयालिस* की मशालें जिसने पच्चिस** में जलायीं थीं,
भुला उसको अहिंसा ने शराफत बेच डाली है.

दशानन की तरह मूरख नहीं जो टालते जायें,
अभी से स्विस स्थित स्वर्ग तक सीढ़ी बना ली है.

हमें मौका मिला है हम भी दीवाली मनायेंगे,
दिवाला देश का निकले हमारे घर दिवाली है.

*भारत छोड़ो आन्दोलन(१९४२) **काकोरी-काण्ड(१९२५)

Monday, October 24, 2011

Swami Ram Tirth

दीपावली पर विशेष
स्वामी रामतीर्थ
Swami Ram Tirth was born on the day of Deepawali (1873), he left the family for ever to become a Monk on the day of Deepawali (1899) and he took Jal Samadhi to leave the world for ever also on the day of Deepawali (1906). What a wonderful co-incidence of his life!

Indian Revolutionary Pandit Ram Prasad Bismil had depicted the character of Swami Ram Tirth in a beatiful poem titled युवा सन्यासी (Yuva Sanyasi). This poem was first time published in his book मन की लहर( Man Ki Lahar). Some of the heart touching lines of this poem are reproduced hereunder:

"वृद्ध पिता-माता की ममता, बिन ब्याही कन्या का भार;
शिक्षाहीन सुतोंकी ममता, पतिव्रता पत्नी का प्यार.

सन्मित्रों की प्रीति और, कालेज वालों का निर्मल प्रेम;
त्याग सभी अनुराग किया, उसने विराग में योगक्षेम.

प्राणनाथ बालक-सुत-दुहिता, यूँ कहती प्यारी छोड़ी;
हाय! वत्स वृद्धा के धन, यूँ रोती महतारी छोड़ी.

चिर-सहचरी रियाजी छोड़ी, रम्यतटी रावी छोड़ी.
शिखा-सूत्र के साथ हाय! उन बोली पंजाबी छोड़ी."

#युवा-सन्यासी (मन की लहर से)

Dear Friends! I have translated these beautiful lines of Bismil in English.

"Left old parents and, unmarried daughter left alone;
 Left sons uneducated, and spouce left alone.

 Left lovable alma-mater, and left family away;
 Left all sobbing behind him, and went so far away.

 Left charming better-half and left river pious Ravi;
 Left curled beautyful hair, and language Punjabi."

#Young Monk (English Version of the above poem)

Those who want to know something more on Swami Ram Tirth they click the follwing link:
http://en.wikipedia.org/wiki/Swami_Rama_Tirtha

Saturday, October 22, 2011

Ashfaq Ulla Khan (111th Birth Day)





१११ वें जन्म दिन पर विशेष
शहीदे-वतन अशफाकउल्ला खाँ
उत्तर प्रदेश के शहीदगढ शाहजहाँपुर  में २२ अक्तूबर १९०० को जन्मे अशफाकउल्ला खाँ के पिता मोहम्मद शफीकउल्ला खाँ  एक कद्दावर पठान  थे  और उनकी माँ  मजहूरुन्निशाँ बेगम बेहद खूबसूरत थीं। अशफाक ने खुद अपनी डायरी में लिखा था  कि जहाँ  उनके बाप-दादों के खानदान में एक भी ग्रेजुएट न हो  सका वहीं दूसरी ओर उनकी ननिहाल में सभी लोग उच्च शिक्षित थे। उनमें से कई तो डिप्टी कलेक्टर व सब जुडीशियल मैजिस्ट्रेट के पदों पर  रह चुके थे। १८५७ के गदर में उनके ननिहाल वालों ने जब हिन्दुस्तान का साथ नहीं दिया तो शाहजहाँपुर की  जनता ने गुस्से में आकर उनकी आलीशान कोठी को आग के हवाले कर दिया था। वह कोठी आज भी पूरे शहर में ''जली कोठी'' के नाम से मशहूर है। गोया अशफाक ने अपनी कुरबानी देकर ननिहाल वालों के नाम पर लगे उस बदनुमा दाग को हमेशा-हमेशा के लिये धो डाला।
यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि काकोरी काण्ड का फैसला ६ अप्रैल १९२६ को आ  गया था। अशफाक उल्ला खाँ और शचीन्द्रनाथ बख्शी को पुलिस बहुत बाद में गिरफ्तार कर पायी थी अत: स्पेशल सेशन जज जे०आर०डब्लू० बैनेट  की अदालत में ७ दिसम्बर १९२६ को एक पूरक मुकदमा दायर किया गया। मुकदमे के मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन ने अशफाक को सलाह दी कि वे किसी मुस्लिम वकील को अपने केस के लिये नियुक्त करें किन्तु अशफाक ने जिद करके कृपाशंकर हजेला को अपना वकील चुना। इस पर एक दिन सी०आई०डी० के पुलिस कप्तान खानबहादुर तसद्दुक हुसैन ने जेल में जाकर अशफाक से मिले और उन्हें फाँसी की सजा से बचने के लिये सरकारी गवाह बनने की सलाह दी। जब अशफाक ने उनकी सलाह को तबज्जो नहीं दी तो उन्होंने एकान्त में जाकर अशफाक को समझाया-

''देखो अशफाक ! तुम भी मुस्लिम हो और  मैं भी एक मुस्लिम हूँ इस बास्ते तुम्हें आगाह कर रहा हूँ। ये राम प्रसाद बिस्मिल बगैरा सारे लोग हिन्दू हैं। ये यहाँ हिन्दू सल्तनत कायम करना चाहते हैं। तुम कहाँ इन काफिरों के चक्कर में आकर अपनी जिन्दगी जाया करने की जिद पर तुले हुए हो। मैं तुम्हें आखिरी बार समझाता हूँ, मियाँ! मान जाओ; फायदे में रहोगे।"

इतना सुनते ही अशफाक की त्योरियाँ चढ गयीं और वे गुस्से में डाँटकर बोले-
"खबरदार! जुबान सम्हाल कर बात कीजिये। पण्डित जी (राम प्रसाद बिस्मिल) को आपसे ज्यादा मैं जानता हूँ। उनका मकसद यह बिल्कुल नहीं है। और अगर हो भी तो हिन्दू राज्य तुम्हारे इस अंग्रेजी राज्य से बेहतर ही होगा। आपने उन्हें काफिर कहा इसके लिये मैं आपसे यही दरख्वास्त करूँगा कि मेहरबानी करके आप अभी इसी वक्त यहाँ से तशरीफ ले जायें वरना मेरे ऊपर दफा ३०२ (कत्ल) का एक केस और कायम हो जायेगा।"
इतना सुनते ही बेचारे कप्तान साहब (तसद्दुक हुसैन) की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी और वे अपना सा मुँह लेकर वहाँ से चुपचाप खिसक लिये। बहरहाल १३ जुलाई १९२७ को पूरक मुकदमे (सप्लीमेण्ट्री केस) का फैसला सुना दिया गया - दफा १२० (बी) व १२१ (ए) के अन्तर्गत उम्र-कैद और ३९६ के अन्तर्गत सजाये-मौत अर्थात् फाँसी का दण्ड।

गुरुवार, १५ दिसम्बर १९२७ की शाम फैजाबाद जेल की काल कोठरी से अशफाक उल्ला खाँ ने अपना आखिरी पैगाम हिन्दुस्तान के अवाम के नाम लिखकर उर्दू भाषा में भेजा था। उनका मकसद यह था कि मुस्लिम समुदाय के लोग इस पर खास तवज्जो  तक यह पूरा सन्देश दिया हुआ है उसी में से कुछ खास अंश अपने ब्लॉग के पाठकों हेतु यहाँ पर दे रहा हूँ।

"गवर्नमेण्ट के खुफिया एजेण्ट मजहबी बुनियाद पर प्रोपेगण्डा फैला रहे हैं। इन लोगों का मक़सद मजहब की हिफाजत या तरक्की नहीं है, बल्कि चलती गाडी़ में रोडा़ अटकाना है। मेरे पास वक्त नहीं है और न मौका है कि सब कच्चा चिट्ठा खोल कर रख देता,जो मुझे अय्यामे-फरारी (भूमिगत रहने) में और उसके बाद मालूम हुआ। यहाँ तक मुझे मालूम है कि मौलवी नियामतुल्ला कादियानी कौन था जो काबुल में संगसार (पत्थरों से पीट कर ढेर) किया गया। वह ब्रिटिश एजेण्ट था जिसके पास हमारे करमफरमा (भाग्यविधाता) खानबहादुर तसद्दुक हुसैन साहब डिप्टी सुपरिण्टेण्डेण्ट सी०आई०डी० गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया पैगाम लेकर गये थे मगर बेदारमग़ज हुकूमते-काबुल (काबुल की होशियार सरकार) ने उसका इलाज जल्द कर दिया और कम्युनलिज्म की बीमारी को वहाँ  फैलने न दिया।"


इसके बाद उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के फायदे, अहमदाबाद कांग्रेस जैसा इत्तिहाद (मेलमिलाप), गोरी अंग्रेजियत का भूत उतारने की बात करते हुए देश के सभी कम्युनिस्ट ग्रुप (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी) से विदेशी मोह व देशी चीजों से नफरत का त्याग करने की नायाब नसीहत देते हुए चन्द अंग्रेजी पंक्तियों के साथ रुखसत होने की गुजारिश की:

"मेरे भाइयो! मेरा सलाम लो और इस नामुकम्मल (अधूरे) काम को, जो हमसे रह गया है, तुम पूरा करना। तुम्हारे लिये हमने यू०पी० (उत्तर प्रदेश) का मैदाने-अमल (कार्य-क्षेत्र) तैयार कर दिया। अब तुम जानो तुम्हारा काम जाने। मैं चन्द सुतूर (पंक्तियों) के बाद रुखसत (विदा) होता हूँ:
"To every man upon this earth, death cometh soon or late.
But how can man die better, than facing fearful odds.
For the ashes of his fathers, and temples of his gods."

बिस्मिल की तरह अशफाक भी बहुत अच्छे शायर थे। इन दोनों की शायरी की अगर तुलना की जाये तो रत्ती भर का भी फर्क आपको नजर नहीं आयेगा। पहली बार की मुलाकात में बिस्मिल अशफाक के मुरीद हो गये थे जब एक मीटिंग में बिस्मिल के एक शेर का जबाव उन्होंने अपने उस्ताद जिगर मुरादाबादी की गजल के मक्ते से दिया था। जब बिस्मिल ने कहा-

"बहे बहरे-फना में जल्द या रब! लाश 'बिस्मिल' की।
कि भूखी मछलियाँ हैं जौहरे-शमशीर कातिल की।।"

तो अशफाक ने ''आमीन" कहते हुए जबाव दिया-

"जिगर मैंने छुपाया लाख अपना दर्दे-गम लेकिन।
बयाँ कर दी मेरी सूरत ने सारी कैफियत दिल की।।"

एक रोज का वाकया है अशफाक आर्य समाज मन्दिर शाहजहाँपुर में बिस्मिल के पास किसी काम से गये। संयोग से उस समय अशफाक 'जिगर' मुरादाबादी की यह गजल गुनगुना रहे थे-

"कौन जाने ये तमन्ना इश्क की मंजिल में है।
जो तमन्ना दिल से निकली फिर जो देखा दिल में है।।"

बिस्मिल यह शेर सुनकर मुस्करा दिये तो अशफाक ने पूछ ही लिया-
"क्यों राम भाई! मैंने मिसरा कुछ गलत कह दिया?"

 इस पर बिस्मिल ने जबाब दिया-

 "नहीं मेरे कृष्ण कन्हैया! यह बात नहीं। मैं जिगर साहब की बहुत इज्जत करता हूँ मगर उन्होंने 'मिर्ज़ा गालिब' की पुरानी जमीन पर घिसा पिटा शेर कहकर कौन-सा बडा तीर मार लिया। कोई नयी रंगत देते तो मैं भी ''इरशाद'' कहता।"

अशफाक को बिस्मिल की यह बात जँची नहीं; उन्होंने चुनौती भरे लहजे में कहा-
"तो राम भाई! अब आप ही इसमें गिरह लगाइये, मैं मान जाऊँगा आपकी सोच जिगर और  गालिब से भी परले दर्जे की है।"

उसी वक्त पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल ने ये शेर कहा-

"सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
देखना है जोर कितना बाजु- ए- कातिल में है?"

यह सुनते ही अशफाक उछल पडे और बिस्मिल को गले लगा के बोले-
"राम भाई! मान गये; आप तो उस्तादों के भी उस्ताद हैं।"

इसके बाद तो अशफाक और बिस्मिल में होड-सी लग गयी एक से एक उम्दा शेर कहने की। परन्तु अगर ध्यान से देखा जाये तो दोनों में एक तरह की 'टेलीपैथी' काम करती थी तभी तो उनके जज्बातों में एकरूपता दिखायी देती है। मिसाल के तौर पर चन्द मिसरे हाजिर हैं उदाहरण के लिए बिस्मिल का यह शेर-

"अजल से वे डरें जीने को जो अच्छा समझते हैं।
 मियाँ! हम चार दिन की जिन्दगी को क्या समझते हैं?"

अशफाक की इस कता के कितना करीब जान पडता है-

"मौत एक बार जब आना है तो डरना क्या है!
 हम इसे खेल ही समझा किये मरना क्या है?
 वतन हमारा रहे शादकाम और आबाद,
 हमारा क्या है अगर हम रहे,रहे न रहे।।"

मुल्क की माली हालत को खस्ता होता देखकर लिखी गयी बिस्मिल की ये पंक्तियाँ

"तबाही जिसकी किस्मत में लिखी वर्के-हसद से थी,
उसी गुलशन की शाखे-खुश्क पर है आशियाँ मेरा।"

अशफाक के इस शेर से कितनी अधिक मिलती हैं-

"वो गुलशन जो कभी आबाद था गुजरे जमाने में,
मैं शाखे-खुश्क हूँ हाँ हाँ उसी उजडे गुलिश्ताँ की।"

इसी प्रकार वतन की बरवादी पर बिस्मिल की पीडा

"गुलो-नसरीनो सम्बुल की जगह अब खाक उडती है,
 उजाडा हाय! किस कम्बख्त ने यह बोस्ताँ मेरा।"

से मिलता जुलता अशफाक का यह शेर किसी भी तरह अपनी कैफियत में कमतर नहीं-

"वो रंग अब कहाँ है नसरीनो-नसतरन में,
 उजडा हुआ पडा है क्या खाक है वतन में?"

बिस्मिल की एक बडी मशहूर गजल 'उम्मीदे-सुखन'  की ये पंक्तियाँ-

"कभी तो कामयाबी पर मेरा हिन्दोस्ताँ होगा।
 रिहा सैय्याद के हाथों से अपना आशियाँ होगा।।"

अशफाक को बहुत पसन्द थीं। उन्होंने इसी बहर में सिर्फ एक ही शेर कहा था जो उनकी अप्रकाशित डायरी में इस प्रकार मिलता है:

"बहुत ही जल्द टूटेंगी गुलामी की ये जंजीरें,
किसी दिन देखना आजाद ये हिन्दोस्ताँ होगा।"

जिन्हें अशफाक और बिस्मिल की शायरी का विशेष या तुलनात्मक अध्ययन करना हो वे किसी भी पुस्तकालय में जाकर मेरी पुस्तक स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास  का दूसरा भाग देख सकते हैं।

अशफाक के बारे में आप अंग्रेजी विकिपीडिया में लेख देख सकते हैं लिंक दे रहा हूँ:
http://en.wikipedia.org/wiki/Ashfaqulla_Khan

Monday, October 17, 2011

Diety of our era

हमारे युग के देवता

हमने जिनको देवता समझ श्रद्धा स्वरूप पूजा की है,
ऐसा क्यों हमने किया कभी इसका कारण सोचा भी है.

देवता उसे कहते हैं जिसने सदा दिया हो लिया न हो,
वह कभी हुआ हो इससे क्या, पर अब भी वह ऐसा ही है.

दुर्गा शिव औ' हनुमान आदि सब इसी कोटि में आते हैं,
इसलिए इन्हें देवता कहा इसलिए इन्हें पूजा भी है.

क्या किसी देवता से कम था उन अमर शहीदों का चरित्र,
खोकर अपना सर्वस्व जिन्होंने हमको स्वतन्त्रता दी है.

उन अमर शहीदों की स्मृति में बनबायें हम भी मन्दिर,
क्या कभी आपने या हमने इस मुद्दे पर चिन्ता की है.

यदि सच समझो तो ये शहीद ही आज हमारे नायक हैं,
बच्चों से कभी कहानी में क्या इसकी भी चर्चा की है?

ये भी पूजा के लायक हैं, हम भी कितने नालायक हैं,
इन दीवानों को भुला  सिर्फ नेताओं की सेवा की है.

सौगन्ध राम की खाते हैं हम मन्दिर वहीं बनायेंगे,
यह कहने वालों से पूछो क्या इस पर कुछ सोचा भी है?

या जो जनता के पैसे से मूर्तियाँ  भव्य लगवाती  है,
उससे भी पूछो -" क्या इनकी खातिर थोड़ा पैसा भी है?"  



Monday, October 3, 2011

Iron man Shastriji

1942 के आन्दोलन के असली सूत्रधार लालबहादुर शास्त्रीजी

"शत्रु-दलन के लिए काल बनकर आये थे,
पड़ी भँवर में नाव पाल बनकर आये थे;
कैसे तुम्हें सराहें कैसे नमन करें हम,
लालबहादुर यहाँ लाल बनकर आये थे."

आग्नेय कवि दामोदरस्वरूप 'विद्रोही' की इन पंक्तियों के साथ शास्त्रीजी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालता हुआ यह एतिहासिक प्रकरण हिन्दी विकिपीडिया से साभार उद्धृत किया जा रहा है:

दूसरे विश्व युद्ध में इंग्लैण्ड को बुरी तरह उलझता देख जैसे ही नेताजी ने आजाद हिन्द फौज को "दिल्ली चलो" का नारा दिया, गान्धी जी ने मौके की नजाकत को भाँपते हुए ८ अगस्त १९४२ की रात में ही बम्बई से अँग्रेजों को "भारत छोड़ो" व भारतीयों को "करो या मरो" का आदेश जारी किया और सरकारी सुरक्षा में यरवदा पुणे स्थित आगा खान पैलेस में चले गये। ९ अगस्त १९४२ के दिन इस आन्दोलन को लालबहादुर शास्त्री सरीखे एक छोटे से व्यक्ति ने प्रचण्ड रूप दे दिया। १९ अगस्त, १९४२ को पूरे ११ दिन आन्दोलन चलाने के बाद शास्त्रीजी गिरफ्तार हो गये।

इस  तथ्य  का  उल्लेख  भारत  की  पूर्व  प्रधानमन्त्री  श्रीमती  इन्दिरा  गांधी  ने  धरती का लाल  पुस्तक  में  अपने  लेख  मेरे राजनीतिक गुरु: शास्त्रीजी में किया था।

९ अगस्त १९२५ को ब्रिटिश सरकार का तख्ता पलटने के उद्देश्य से राम प्रसाद 'बिस्मिल' के नेतृत्व में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ ) के दस जुझारू कार्यकर्ताओं ने काकोरी काण्ड किया था जिसकी यादगार ताजा रखने के लिये पूरे देश में प्रतिवर्ष ९ अगस्त को "काकोरी काण्ड स्मृति-दिवस" मनाने की परम्परा भगत सिंह ने प्रारम्भ कर दी थी और इस दिन बहुत बड़ी संख्या में नौजवान एकत्र होते थे। गान्धी जी ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत ९ अगस्त १९४२ का दिन चुना था। काश! गान्धी जी सन् १९२२ में चौरीचौरा काण्ड से घबड़ाकर अपना असहयोग आन्दोलन वापस न लेते तो इतने सारे देशभक्त फाँसी पर झूलकर अपना मूल्यवान जीवन क्यों होम करते ?

शास्त्रीजी बम्बई से चुपचाप खिसक लिए और इलाहाबाद जाकर आनंद भवन में जा ठहरे क्योंकि वहाँ पुलिस का परिंदा भी न पहुँच सकता था. उधर बम्बई में ९ अगस्त १९४२ को दिन निकलने से पहले ही काँग्रेस वर्किंग कमेटी के सभी सदस्य गिरफ्तार हो चुके थे और काँग्रेस को गैरकानूनी संस्था घोषित कर दिया गया। गान्धी जी के साथ भारत कोकिला सरोजिनी नायडू को यरवदा पुणे के आगा खान पैलेस में सारी सुविधाओं के साथ, डॉ० राजेन्द्र प्रसाद को पटना जेल व अन्य सभी सदस्यों को अहमदनगर के किले में नजरबन्द रखने का नाटक ब्रिटिश साम्राज्य ने किया था ताकि जनान्दोलन को दबाने में बल-प्रयोग से इनमें से किसी को कोई हानि न हो। सरकारी आँकड़ों के अनुसार इस जनान्दोलन में ९४० लोग मारे गये १६३० घायल हुए, १८००० डी० आई० आर० में नजरबन्द हुए तथा ६०२२९ गिरफ्तार हुए। आन्दोलन को कुचलने के ये आँकड़े दिल्ली की तत्कालीन  सेण्ट्रल असेम्बली में ऑनरेबुल होम मेम्बर ने पेश किये थे।

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