Tuesday, July 31, 2012

Fruits of family

पारिवारिक दोहे


पहले होते थे यहाँ, बड़े बड़े परिवार.
जहाँ सीखते थे सभी, आपस में व्यवहार.

पति-पत्नी माता-पिता, सास-ससुर सम्बन्ध.
सबका था परिवार में, पारस्परिक प्रबन्ध.

परम्परा थी आपसी, सम्बन्धों की लीक.
उस पर चलते थे सभी, वही प्रथा थी ठीक.

पहले दूजे को खिला, फ़िर खाते थे आप.
त्याग दूसरे के लिये, करते थे चुपचाप.

रिश्तों की थी उस समय, बहुत बड़ी जंजीर.
चाचा-ताऊ की कड़ी, थी कितनी गम्भीर.

रिसने लगा मनुष्य से, जब आपसी लगाव.
वैमनस्य की भावना, से उपजा अलगाव.

रिश्तों में थी वाकयी, कितनी बड़ी मिठास.
मौसी-मौसा के लिये, मन में था विश्वास.

रिश्ते-नाते तोड़कर, तोड़ दिया परिवार.
बच्चोँ पर माँ-बाप तक, आज हो गये भार.

वाद हुआ हावी यहाँ, पिछड़ गया सम्वाद.
इसके कारण बढ़ गये, झगड़े और फसाद.

वाह पश्चिमी सभ्यता, खेला कैसा खेल.
परिवारों के वृक्ष को, लील गयी विष-बेल.

वार किया कितना बड़ा, सह न सकी तलवार.
मूठ हाथ में रह गयी, टूट गया परिवार.

वाहक था जो धर्म का, अर्थ आदि व्यापार.
आश्रित था जिस पर वही, रहा न अब परिवार.

रही न अपनी सभ्यता, रहा न अपना वेष.
आज़ादी ऐसी मिली, टूट गया परिवेश,

रहते थे जिसमें सभी, मिल-जुल होकर एक.
आज उसी परिवार के, टुकड़े हुए अनेक.

रखना है अब भी अगर, संस्कृति का सम्मान.
तो रक्खो परिवार में, इक-दूजे का ध्यान.

रहें सभी परिवार में, हिल-मिलजुल कर आज.
बना रहेगा विश्व में, अपना सभ्य समाज.