Friday, September 28, 2012

Bhagat Singh in Nalgadha

जन्मदिन पर विशेष:

नलगढ़ा (नोएडा) में भगतसिंह

"सर देकर जो दार पर,
कहलाये सरदार.

मुँह तो उज्ज्वल कीजिये,
सरदारों का यार !" 



मित्रो! गत वर्ष मैंने इस ब्लॉग पर अमर शहीद पण्डित रामप्रसाद 'बिस्मिल' के भूमिगत जीवन के बारे में एक पोस्ट लिखी थी.

इस बार क्या अद्भुत संयोग है कि मुझे आज एक ऐसे पवित्र स्थान को देखने का सौभाग्य मिला जिसके बारे में केवल कुछ समाचार पत्रों में पढ़ा था प्रत्यक्ष देखा न था. पेश है उसकी एक संक्षिप्त रिपोर्ट:

सन १९१८ में "मैनपुरी काण्ड" करके बिस्मिल ने दिल्ली के समीप यमुना व हिन्डन नदी के मध्य स्थित बीहडों में शरण ली थी और यहाँ के एक छोटे से गाँव रामपुर जागीर के गूजरों के जानवर चराये थे उसके बाद वे यहाँ से कोसमा अपनी बहन के घर चले गये. इस बात को जब उन्होंने अपनी क्रान्तिकारी पार्टी के लोगों को बताया तो उन्हें यह स्थान छुपने के लिये सबसे ज्यादा सुरक्षित लगा.

आजकल जहाँ "नोएडा-ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस वे" बन चुका है उससे बिलकुल सटे एक छोटे से गाँव नलगढ़ा में ग्रेटर नोएडा आर्य समाज की ओर से सरदार भगतसिंह के जन्मदिन पर एक यज्ञ का आयोजन किया गया जिसमें उन्होंने वक्ता के रूप में मुझे भी आमन्त्रित किया था. कार्यक्रम के दौरान आर्यदीप पब्लिक स्कूल के स्वामी बिजेन्द्र आर्य जी ने जब यह बात बतायी कि 'क्रान्त' जी यही वह गाँव है जहाँ कभी पण्डित रामप्रसाद 'बिस्मिल', चन्द्रशेखर आज़ाद, सुखदेव, राजगुरु और भगतसिंह आदि अनेक क्रान्तिकारी छुपकर बरतानिया हुकूमत के दौरान अपनी योजनायें बनाया करते थे. केवल इतना ही नहीं, उन्होंने दिल्ली असेम्बली में जो बम फेंका था फेंकने से पूर्व उस जैसे अनेकों बम बनाकर उनका परीक्षण भी इसी जगह किया था. वह पत्थर जिस पर रखकर उस बम का परीक्षण किया था वह इस गाँव के कुछ सरदार लोगों ने आज भी सुरक्षित रखा हुआ है.

मेरी उत्सुकता यह बात सुनकर और भी अधिक बढ़ गयी तो वे लोग मुझे गुरूद्वारे में ले गये. मैंने पहले गुरूद्वारे जाकर पूरी श्रद्धा से पवित्र गुरु ग्रन्थ साहब को नमन किया फिर उस पत्थर को देखने की इच्छा प्रकट की.

मेरे साथ बीटावन  सेक्टर की आर.डब्लू.ए. के महामन्त्री हरीन्द्र भाटी अध्यक्ष देवेन्द्र टाइगर, आर्य समाज ग्रेटर नोएडा के रामेश्वर सरपंच, पूर्व न्यायाधीश जयप्रकाश नागर, देवमुनि जी, जनमेजय शास्त्री, धर्मवीर प्रधान व नलगढ़ा गाँव के सरदार सुखदेवसिंह, श्रीमती सुरजीत कौर,  जसपालसिंह, महेन्द्रपाल सिंह व अन्य कई लोग थे. मैंने उस पत्थर को बड़े ध्यान से देखा और उसके कई कोणों से फोटो लिये. उन फोटुओं को यहाँ इस ब्लॉग पर दे रहा हूँ.
बिजेन्द्र आर्य ऊँगली के इशारे से पत्थर के एक साइड में बने गड्ढे को दिखाते हुए.
परीक्षण के दौरान बम-विस्फोट से यह गड्ढा काला हो गया साफ़ दिखायी देता है.
इसी पत्थर की दूसरी साइड में बना हुआ लगभग उसी आकार का एक और गड्ढा.
पत्थर के ऊपरी सिरे पर बारूद बनाने का वह स्थान जिस पर शोरा, गन्धक व इमली का कोयला रखकर उसको चटनी की तरह पीसकर बारूद तैयार होता था.

पत्थर को देखते हुए कार्यक्रम में पहुँचे अन्य लोगों की तस्वीर भी ले ली  जिससे पत्थर की लम्बाई, चौड़ाई व मोटाई का सरसरी तौर पर अनुमान लगाया जा सके.

इस पत्थर को बड़ी बारीकी से देखने के बाद लगा कि यह तो पुरातत्व विभाग के लिये नितान्त शोध की वस्तु है. निस्संदेह यह पत्थर पोखरण के उस मैदान से भी अधिक महत्व का है जहाँ मिसाइलमैन ए.पी.जे. अब्दुल कलाम और अटलबिहारी वाजपेयी जी की उपस्थिति में भारत ने कभी परमाणु परीक्षण करने का पहली बार साहस किया था. और अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसियों को इसकी भनक तक नहीं लगने दी थी.

नलगढ़ा में जो गुरुद्वारा है उसकी चहारदीवारी से सटाकर सुरक्षित रखे गये इस पत्थर का ऐतिहासिक व पुरातात्विक महत्व है. क्या केन्द्र अथवा राज्य सरकार इस स्थल को संरक्षण प्रदान करेगी या केवल सत्तारूढ़ नेताओं की छवि बनाने में ही जुटी रहेगी? फिर चाहे वह नेहरू-गान्धी परिवार हो, सुश्री मायावती हों या कोई और?

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टिप्पणी:  दार माने फाँसी का तख्ता

Friday, September 21, 2012

Problem with the country "INDIA"

सूरते-हाल

कथनी औ' करनी में कितना फ़र्क है!
इसीलिये तो देश हमारा नर्क है!!

स्वार्थ-भाव की कीमत जिसको चाहिये,
उसको कहिये-"आप यहाँ से जाइये!"
जिन्दा है वह कौम जिसे यह भान है,
भाईचारा ही समाज की जान है!!

भाई-भाई में हो रहा कुतर्क है!
इसीलिये तो सबका बेड़ा गर्क है!!

राष्ट्र-धर्म से किसको कितना मोह है?
शासन नहीं, कुशासन का यह द्रोह है!
कूट-नीति छल-नीति प्रभावी हो रही,
राजनीति में 'माया' हावी हो रही!!

देश-प्रेम का मन्त्र किसे अब याद है?
इसीलिये तो घर का घर बरवाद है!!

प्रतिभायें सब यहाँ उपेक्षित हो रहीं,
छद्म-नीतियाँ पथ में काँटे बो रहीं!
धैर्य,धर्म,मित्रता और गृहस्वामिनी,
कुछ भी हो पर हमें न इनकी माननी!!

हठधर्मी का प्रचलन चारो ओर है!
इसीलिये तो 'धर्म' हुआ कमजोर है!!

बुद्धिमान लोगों को यह क्या हो गया?
सुविधाओं में उनका पौरुष खो गया!
अर्थ-लोभ में इतने अन्धे हो रहे,
स्वार्थ-सिद्धि में काले-धन्धे हो रहे!!

यश-प्रसिद्धि में सिद्धि-साधना मौन है!
सिद्धों को अब यहाँ पूछता कौन है??

कभी विश्व-कुल-गौरव था निज देश यह,
घर-घर में पहुँचाया था सन्देश यह---
"सकल विश्व को श्रेष्ठ बनायें आर्य-जन,
भूखा नंगा रहे न कोई भी स्व-जन!!"

किन्तु आज उस आर्य-मन्त्र का क्या हुआ?
इसीलिये है देश आज पिछड़ा हुआ!!

युगों-युगों से हम चिल्लाते आ रहे,
फाड़-फाड़ कर गला बताते आ रहे-
"सकल सिद्धियों का साधन जो 'धर्म' है,
उसी 'धर्म' में निहित तुम्हारा कर्म है!!"

धर्म-कर्म को लोग नहीं अपना रहे!
इसीलिये तो मात हर जगह खा रहे!!

Friday, September 14, 2012

New Slogan for India


हिन्दुस्तान का नया नारा

नेताजी ने हिन्द के, लिये कहा-"जय हिन्द!"
आओ हम मिलकर कहें-"जय हिन्दी! जय हिन्द!!"

कहें 'क्रान्त' इसमें अगर, "जय हिन्दू!" जुड़ जाय!
अपना हिन्दुस्तान यह, विश्व-गुरू बन जाय!!

आज हिन्दी -दिवस पर इस नवीन नारे के साथ विश्व के समस्त भारतवासियों को शुभ कामनायें!

New Message to Contrymen on Hindi Divas

यह हिन्दी है धर्म-ध्वजा अपनी!

जब देश स्वतन्त्र हुआ अपना तब ऐसी यहाँ कोई बात न थी,
हम एक थे भाषा के प्रश्न को लेकर नेताओं में भी दुभाँति न थी;
कथनी-करनी का जो फ़र्क बढ़ा उसने ही समस्यायें पैदा करीं,
अंग्रेजों के राज में देश की भाषा विदेश की भाषा के साथ न थी.

बड़े भाग से मानुस जोनि मिली इसे कर्म प्रधान बनाये रहो,
जहाँ कर्म सही वहाँ धर्म सही इस बात को ध्यान में लाये रहो,
इस देश में हिन्दी के जन्म-दिवस पे है 'क्रान्त' का नम्र-निवेदन ये -
"यह हिन्दी है धर्म-ध्वजा अपनी इस हिन्दी को आप उठाये रहो!"

Thursday, September 13, 2012

Father of Hindi

हिन्दी-दिवस (१४ सितम्बर) की पूर्व संध्या पर
भारत रत्न बाबू पुरुषोत्तमदास टण्डन जी को
शब्द सुमनांजलि

जो जला राष्ट्र भाषार्थ लौ की तरह, उस समर्पित शिखा को हृदय से नमन;
आइये आज हिन्दी-दिवस पर करें, उसके संकल्प का कर्ममय आचमन!!

वज्र सी अस्थियाँ वर्फ़ सी गल गयीं, स्वर्ण-काया पिघल मोम सी जल गयी;
किन्तु सिद्धान्त से जो न विचलित हुआ,अन्ततः पूर्ण करके दिखाया वचन!

स्वयं टकरा गया जाके चट्टान से, पुण्य-सलिला उठा लाया नभ-मान से;
राष्ट्र-भाषा-कमण्डल में ला रख दिया, जिसने हिन्दी को उस राज-ऋषि को नमन!

आइये! आज हम आप सब मिल करें,
उस तपस्वी के जीवन सा ही आचरण!

जिसने हिन्दी को गौरव से मण्डित किया, राष्ट्र-भाषा से स्वर को प्रचण्डित किया;
जो दिलाकर गया मान्यता विश्व में, उसका निश्छल हृदय से करें स्मरण!

आज हम राष्ट्र-भाषा के प्रतिप्रश्न पर, मौन साधे हुए हैं न होते मुखर;
कितने षड्यन्त्र अब तक रचे जा चुके, किन्तु हम सो रहे तान चादर सघन!

आइये! आज के इस ज्वलित प्रश्न पर,
हम सभी बैठकर कुछ करें आकलन!

है कहीं पर असमिया कहीं बांगला, दूसरी प्रान्त-भाषा बनीं अर्गला;
राष्ट्र-भाषा बिचारी खड़ी द्वार पर सर पटक कर रही है सिसककर रुदन!

कुछ तो संकल्प लें कुछ विचारें सभी, अन्यथा यह समस्या बनेगी कभी;
फिर मनेगा न हर साल "हिन्दी-दिवस", फिर न समिधा मिलेगी न होगा हवन!

आइये! वज्र-निर्माण हित हम करें,
शेष उन अस्थियों का पुनः संचयन!! 

नोट: यह कविता मैंने १४ सितम्बर १९८२ को राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन जन्म-शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में लिखी थी और राष्ट्र भाषा हिन्दी प्रचार समिति मुरादाबाद के तत्वावधान में आयोजित
हिन्दी दिवस समारोह में प्रस्तुत की थी व समिति की स्मारिका "संकल्पिका" में प्रकाशित कर दिल्ली में आयोजित तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन में सभी प्रतिनिधियों को वितरित की थी. अखिल भारतीय स्तर पर इस कविता को  प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था. अपने ब्लॉग के सुधी पाठकों की सेवा में प्रस्तुत है. एक निवेदन और ऊपर टण्डन जी का जो चित्र दिया गया है वह मैंने http://bharatmatamandir.in/blog/2010/04/26/purushottam-tandon/ वेबसाइट से साभार कापी करके यहाँ दिया है. मैं उस वेबसाइट निर्माता  के प्रति अपनी विनम्र कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ.... 

Tuesday, September 11, 2012

No Lokpal! Now Thokpal!!

ना लोकपाल! 
ना जोकपाल!!
अब होना चहिये  ठोकपाल?
(नुक्कड़ गीत)


ना लोकपाल ना जोकपाल
अब होना चहिये ठोकपाल
क्या कहा आपने ठोकपाल?
हाँ ठोकपाल, जी! ठोकपाल!!

अठारह सौ पच्चासी में अंग्रेज ने इसे बनाया था
था ए०ओ० ह्यूम नाम उसका जिसने यह नाम सुझाया था.

इसका था केवल काम साल में एक बार जलसा करना.
वह भी पच्चीस दिसम्बर को अंग्रेजों  का हुक्का भरना.

उस दिन छोटी मोटी "अर्जी"  लिखकर के ये दे देते थे.
उसके बदले "महरानी" से ये मोटा पैसा लेते  थे.

इन  कांग्रेसियों को जनता "अर्जीदिहन्द " बतलाती थी.
"ये अंग्रेजों के चमचे हैं" कहकर खिल्लियाँ उड़ाती थी.

फिर "लाल" "बाल" और "पाल" सरीखे कुछ कद्दावर घुस आये.
"हम लेंगे अभी स्वराज" धमकियाँ अंग्रेजों को भिजवाये.

धमकी से घबराकर उन सब अंग्रेजों का था बुरा हाल.
दक्षिण अफ्रीका से बुलवाया गान्धी जी को बना ढाल.

इनका था पहला लोकपाल, हाँ लोकपाल जी लोकपाल.

उन्नीस सौ सैंतालिस में जब अंग्रेज यहाँ से गये भाग.
तो अपने इन्हीं दलाल बन्दरों के हाथों दे गये आग.

वह आग "करप्शन" की इन सबने घर-घर ऐसी पहुँचा दी.
अब उसे बुझाओ तो लगता है टूट न जाये यह शादी.

जनता व्याकुल हो सोच रही इस आग से कैसे बचे खाल?
बन गयी गले की यह हड्डी कम्बख्त पार्टी बेमिसाल.

कोयला-करप्शन-काँग्रेस इन सबकी है इक "मिथुन" राशि.
इतना "मैथुन" कर रहे देखते नहीं कि दिन है या कि राति.

गान्धी बाबा की लाठी ही है पास तुम्हारे एक अस्त्र.
कुछ करो अन्यथा ये तो सबके सब उतारने लगे वस्त्र.

"है नंग बड़ा परमेश्वर से" अब तो ये चलने लगे चाल.
इसलिये कह रहा हूँ यारो! अगला चुनाव हो बेमिसाल.

इनकी ना एको गले दाल, इसका रखना पूरा ख़याल.
अब ठोकपाल बस ठोकपाल, ईवीएम पर हो ठोकपाल.

यदि अबकी गलती करी तो फिर, पछताओगे चारसौ साल.
ना लोकपाल ना जोकपाल, अगले चुनाव में ठोकपाल.

हाँ! ठोकपाल!! जी! ठोकपाल!!