Tuesday, November 29, 2011

A thought on Education

भारत में अंग्रेजी शिक्षा के दुष्परिणाम

भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रादुर्भाव उन्नीसवीं शताब्दी के चौथे दशक में हुआ. मिस्टर चार्ल्स ग्रान्ट ने 1792 से 1797 तक पूरे 6 वर्ष तक विचार मन्थन के उपरान्त 'भारतीय शिक्षा' पर एक विलक्षण पुस्तक में लिखा-

"शिक्षा के प्रचार के लिए हम जो भी प्रयत्न करेंगे वह हमारे  मुख्य उद्देश्य को  प्राप्त करने में सहायक होगा. हमारा व्यापार 
उन्नति करेगा जो  योरोप के लिए अति आवश्यक है.  हमें चाहिए कि भारतीयों की रूचि भोग  विलास की सुन्दर वस्तुओं की ओर बढ़ायें.  जब उन्हें इसका चस्का लग जायेगा तो वे अपने विषय-भोग के लिए करोड़ों रुपये का माल हमसे खरीदेंगे. इससे हमारा दुःख-दारिद्र्य मिट जायेगा और हमारा व्यापार चिर-स्थायी हो जायेगा.फिर कोई भी हमारा मुकाबला न कर सकेगा."

सुप्रसिद्ध क्रन्तिकारी लाला हरदयाल ने चार्ल्स ग्रान्ट के इस कथन पर बड़ी ही गम्भीर टिप्पणी की थी-

"इतिहास हमें बतलाता है कि सब विजयी जातियाँ राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने के पश्चात पराजित जातियों के आचार-विचार को अपने वश में कर लेती हैं. नैतिक विजय एक निर्बल जाति के शारीरिक बल को ही अपने वश में कर पाती है परन्तु सामाजिक तथा मानसिक दासता पराजित जाति के लिए विष का काम करती है. फिर उस जाति के लिए दासता से निकल कर स्वतन्त्र हो पाना अत्यन्त कठिन हो जाता है."

देखा जाये तो आज से एक शताब्दी पूर्व जो भविष्य वाणी लाला हरदयाल जी ने की थी वह आज स्वतन्त्र भारत में अक्षरशः सत्य सिद्ध हो रही है. क्या हमारी वर्तमान सरकार का यह दायित्व नहीं बनता कि वह अंग्रेजी शिक्षा पर पुनर्विचार करे. स्वतन्त्र भारत में कानून व्यवस्था की पहली पुस्तक अर्थात भारत के संविधान का निर्माण अंग्रेजी भाषा में क्यों किया गया जबकि संविधान निर्मात्री संस्था के लगभग सभी सदस्य (कुछेक को छोड़कर)  हिन्दी अच्छी तरह जानते थे
थे. विचार किया जाये तो भारतीय संविधान का निर्माण एक छलावा था  जो असंख्य बलिदानियों के रक्त के मूल्य के साथ किया गया. वस्तुतः भारतीय संविधान इंग्लैंड, अमरीका,कनाडा,आयरलैंड और आस्ट्रेलिया जैसे देशों के संविधानों की मुख्य-मुख्य बातों का एक संकलन मात्र था जिसे हमारे तत्कालीन संविधान निर्माताओं ने अपनी  सुविधा अनुसार अपना लिया था. आज भी हमारे देश में 34735 कानून  अंग्रेजी राज्य के  यथावत (ज्यों के त्यों) चले आ रहे हैं. यही कारण है कि भारत की  आम जनता को समय पर  न्याय नहीं मिल पाता. आज भी करोड़ों मुकदमें भारतीय न्यायालयों में लम्बित (लटके पड़े) हैं जिन्हें निबटाने में 400 साल लगेंगे.

शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा ये तीनों ही व्यवस्थायें सरकार की ओर से आम जनता के लिए बिलकुल मुफ्त होनी चाहिए परन्तु देश का दुर्भाग्य है कि सुरक्षा केवल राजनीतिक नेताओं की मुफ्त है बाकी बड़े लोग अपने सुरक्षा गार्ड खुद रखने लगे हैं. रह गयी शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था, वह पूरी तरह से व्यावसायिक नहीं, घोर व्यावसायिक हो गयी है. जिस व्यवस्था के तहत ये सब हो रहा है क्या उसे पूरी तरह से बदलने की आवश्यकता नहीं है? यह प्रश्न मैं आप सबको हल करने के लिए छोड़ता हूँ.

   

Friday, November 25, 2011

Duel eyewatch

दुधारी नीति की शिकार जनता  

इस कदर हम पर दुधारी नीति के पहरे हुए हैं,
मूक नगरी है यहाँ के लोग सब बहरे हुए हैं.

आज घायल साधना को बाँटते हैं स्वर कसैले,
भाव मन के गाँव में महमान से ठहरे हुए हैं.

लोग पीते जा रहे हैं वेदना का विष निरन्तर,
पीर के आयाम गीली आँख में गहरे हुए हैं.

बिछ गयी इस छोर से उस छोर तक मनहूस चौपड़,
शातिरों के हाथ हम शतरंज के मोहरे हुए हैं.

धूप  में तपना सरल पर छाँव में जलना कठिन है,
'क्रान्त' इस अनुभूति में झुलसे सभी चेहरे हुए हैं.

Tuesday, November 15, 2011

What is our contribution?

भ्रष्टाचार और हम

चर्चा है अत्यधिक भ्रष्ट हर सरकारी अधिकारी है,
जिसने  इसको जन्म दिया उसकी भी जिम्मेदारी है.
किसने उसको भ्रष्ट बनाने में कितना सहयोग किया,
कभी न ये हमने सोचा है यह कैसी लाचारी है?

जो समाज काफी बिगड़ा है आओ उसे बनायें कुछ,
हम औरों को छोड़ स्वयं निज जीवन में अपनायें कुछ,
जितने यहाँ बुद्धिजीवी हैं उनसे यही निवेदन है,
व्यक्ति-व्यक्ति निर्माण-भाव सारे समाज में लायें कुछ.

जिस समाज से जुड़े रहे हम कहो उसे क्या दे पाये,
अर्थ-स्वार्थ-चिन्तन में उसको इस स्थिति तक ले आये,
इस पर स्वयं विचार करें फिर जीवन में संकल्प करें,
वही करें जो धर्म-ध्वजा को कर्म-शिखा तक पहुँचाये.

हम फ्रेमों में तस्वीरों-से अपने को ही जड़े रहे,
बन्द किबाड़ें करके घर में अजगर जैसे पड़े रहे,
इसी मानसिकता के चलते बात नहीं कुछ बन पायी,
केवल बात बढ़ाने में ही अपनी जिद पर अड़े रहे.

जुड़ा धर्म के साथ कर्म है इस पर नहीं विचार किया,
प्रत्युत हमने कर्म छोडकर  केवल पापाचार किया,
यदि एकात्म-मनुज का चिन्तन हम समाज को दे पाते,
यहीं स्वर्ग होता धरती पर सबने यह स्वीकार किया.

लेकिन यह स्वीकार मात्र करने से काम नहीं होगा,
अपना सिर्फ प्रचार मात्र करने से काम नहीं होगा,
इस समाज में परिवर्तन अब नई पौध ही लायेगी,
कर्म-क्रान्ति हो गयी शुरू तो फिर आराम नहीं होगा.

जन-जन को दायित्व-वोध हम सबको करवाना होगा,
नीति-युक्त कर्तव्य-भाव अपने मन में लाना होगा,
एक और यदि जीवन है तो अपर ओर है मृत्यु खड़ी,
इन दोनों के बीच सही निर्णय को अपनाना होगा.

एक राष्ट्र का एक भाव हो संकल्पों की जिज्ञासा,
एक राष्ट्र का एक धर्म हो संकल्पों की अभिलाषा,
एक राष्ट्र का एक घोष "जय-हिन्द", घोषणा "जय-हिन्दी"
इन सबके अतिरिक्त राष्ट्र की और न कोई परिभाषा.

आओ फिर हुंकार करें कविवर दिनकर की वाणी में,
आओ फिर कोहराम मचा दें अखिल विश्व-ब्रह्माणी में,
एक बार सम्पूर्ण राष्ट्र उद्घोष कर उठे-"जय-हिन्दी"
स्वाभिमान का स्वर गूँजे भारतवासी हर प्राणी में.