Wednesday, January 11, 2012

A tribute to Lal Bahadur Shastri

  शास्त्री जी को विनम्र श्रद्धांजलि

भारत के अद्वितीय प्रधानमन्त्री स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री जी भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उनके द्वारा स्थापित नैतिक मूल्यों का वर्तमान  राजनीतिक  परिस्थितियों में अभी  भी महत्व है.

मेरी यह कविता उनकी पुण्य-तिथि पर समस्त देशवासियों को समर्पित करते हुए मेरी काव्य-कृति ललिता के आँसू से यहाँ पोस्ट की जा रही है;

हे मर्यादा के शुचि प्रतीक! ओ मानवता के पुण्य धाम!
हे अद्वितीय इतिहास पुरुष! शास्त्री! तुमको शत-शत प्रणाम!!

तुमने स्वदेश का कल देखा, अपने जीवन का आज नहीं;
तुमने मानव-मन की पुकार को किया नजर अंदाज नहीं.

तुमने तारों की प्रभा लखी,सूना आकाश नहीं देखा;
तुमने पतझड़ की झाड़ सही,कोरा मधुमास नहीं देखा.

तुमने प्रतिभा की पूजा की, प्रतिमा को किया न नमस्कार;
तुम सिद्धान्तों के लिए लड़े, धर्मों का किया न तिरस्कार.

तुमने जलते अंगारों पर, नंगे  पैरों  चलना  सीखा;
तुमने अभाव के आँगन में भी, भली-भाँति पलना सीखा.

तुमने निर्धनता को सच्चा वरदान कहा, अभिशाप नहीं;
तुमने बौद्धिक विराटता का, माना कोई परिमाप नहीं.

तुमने आदर्शवाद माना, माना  कोई अपवाद नहीं;
तुमने झोंपड़ियाँ भी देखीं, देखे केवल प्रासाद नहीं.

तुम वैज्ञानिक बन आये थे, खोजने सत्य विश्वास शान्ति;
तुमने आवरण नहीं देखा, खोजी अन्तस की छुपी कान्ति.

तुमने केवल पाया न अकेले ललिता का ही ललित प्यार;
तुमको जीवन पर्यन्त मिला, माँ रामदुलारी का दुलार.

तुमने शासन का रथ हाँका पर मंजिल तक पहुँचा न सके;
तुम हाय! अधर में डूब गये, जीवित  स्वदेश फिर आ न सके.

तुम मरे नहीं हो गये अमर, इतना है दृढ विश्वास मगर;
रह गया अधूरा "जय किसान" इसकी अब लेगा कौन खबर?

तुम थे गुलाब के फूल मगर दोपहरी में ही सूख गये;
तुमने था लक्ष्य सही साधा पर अन्तिम क्षण में चूक गये.

जो युद्ध-क्षेत्र में नहीं छुटा, पथ शान्ति-क्षेत्र में छूट गया;
जो ह्रदय रहा संकल्प-निष्ठ, क्यों अनायास ही टूट गया?

यह प्रश्न आज सबके उर में शंका की तरह उभरता है;
पर है वेवश इतिहास मौन, कोई टिप्पणी न करता है?

जो कठिन समस्या राष्ट्र अठारह वर्षों में सुलझा न सका;
भारत का कोई भी दुश्मन तुमको भ्रम में उलझा न सका.

वह कठिन समस्या मात्र अठारह महिने में सुलझा दी थी;
चढ़ चली जवानी अरि-दल पर तुमने वह आग लगा दी थी.

अत्यल्प समय के शासन में सम्पूर्ण राष्ट्र हुंकार उठा;
उठ गयी तुम्हारी जिधर दृष्टि उस ओर लहू ललकार उठा.

तुम गये आँसुओं से आँचल माँ वसुन्धरा का भीग गया;
जन-जन की श्रद्धांजलियों से पावन इतिहास पसीज गया.

हे लाल बहादुर! आज तुम्हारी चिर-प्रयाण-तिथि पर अशान्त-
मन से अपनी यह श्रद्धांजलि, तुमको अर्पित कर रहा 'क्रान्त'.


शब्द संकेत: ललिता (पत्नी का नाम) रामदुलारी (माँ का नाम)  

2 comments:

Anonymous said...

दिल से अपनी यह श्रद्दांजलि अर्पित करता है सुमित

Anonymous said...

अत्यंत भावपूर्ण रचना, इस महान आत्मा के साथ साथ कवि को भी नमन।