Wednesday, August 28, 2013

O Krishna ! who calls you?

धूप के आइने से...

गीता के कर्मयोगी को कौन पूछता है?

 सैलाब के स्वरों में, सब शहर बाँटते हैं !
अश्लील छप्परों में, दोपहर काटते हैं !!

उपलब्धियों की लाशें उघड़ी पड़ी हुई हैं,
उनको लहू के प्यासे ये श्वान चाटते हैं!

स्वर भीड़ से छिटक कर जो बढ़ रहा है आगे,
उसको ये लोग मिट्टी भर-भर के पाटते हैं!

सपने इधर-उधर कुछ बिखरे पड़े हुए हैं,
जमुहाइयों में रुककर हम उनको छाँटते हैं!

साहित्य की विला में कैसे घुसें नवागत,
गुटबाज अर्दली हैं वेभाव डाँटते हैं!

गीता के कर्मयोगी को कौन पूछता है?
कान्हा बने हुए हैं, राधा को गाँठते हैं!!

टिप्पणी: मित्रो! यह गज़ल मेरी बहुत पुरानी कृति धूप के आइने में सन १९८० में छपी थी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि तब थी जब यह लिखी गयी थी! उपरोक्त कृति के १०वें पृष्ठ से लेकर यहाँ पोस्ट की है श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के शुभ अवसर पर! * क्रान्त

 

2 comments:

संजीव कुमार said...

क्रान्त जी मेरे आपकी लिखी ये ग़ज़ल तो लगभग समझ आ रही है और बार-बार पढ़ रहा हूँ। लेकिन इसकी विधा समझने में असफल रहा। चूँकि मुझे यह ज्ञान नहीं है कि गज़लें किस विधा में लिखी जाती हैं अतः यह छोटा सा प्रश्न कर रहा हूँ।

KRANT M.L.Verma said...

प्रिय संजीव जी!
गज़ल की विधा बहुत प्राचीन है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है महबूबा से बात करना. उर्दू शायरों ने इसे विशुद्ध प्रेमाभिव्यक्ति तक सीमित रखा परन्तु दुष्यन्त कुमार की साये में धूप और उन्हीं के समकालीन प्रकाशित मेरी पुस्तक धूप के आइने में राजनीतिक वातावरण को प्रतीकों के माध्यम से हिन्दी गज़ल में अभिव्यक्त करने का जो सिलसिला शुरू हुआ उसे हिन्दी व उर्दू दोनों भाषाओं के प्रेमियों ने हाथों हाथ लिया. अब तो हिन्दी गज़ल का फलक बहुत विस्तृत हो चुका है. मेरे इसी ब्लॉग में मुहाबरों की गज़ल Poetry of Proverbs (Updated) देखियेगा आपको अच्छी लगेगी.