Tuesday, February 8, 2011

Rang de Basanti


लखनऊ जेल में काकोरी षड्यंत्र के सभी  क्रान्तिकारी एक साथ कैद थे. केस चल ही    रहा था क़ि  'बसन्त  पंचमी' का त्यौहार आ गया. सबने मिलकर तय किया क़ि कल ' बसन्त पंचमी' को सभी  क्रान्तिकारी अपने-अपने सिर पर पीले रँग की टोपी पहन कर ही  आयेंगे ,नंगे  सिर कोई  नहीं  आएगा. पुलिस की गाड़ी में  सभी लोग भारत माता की जय का उद्घोष करके एक साथ चढ़ेंगे. इसके बाद सभी अपने- अपने हाथों    में पीला  रूमाल लेकर मस्ती  में गाते  हुए ' रिंक थियेटर' [वह  सिनेमा  हॉल,  जहाँ  मुकद्दमे  की कार्रवाई  हो रही है] चलेंगे. अपने नेता राम प्रसाद 'बिस्मिल' से सबने कहा- "पंडित जी ! कोई फड़कती हुई कविता लिखिए . हम सब लोग उसे 'कोरस' के रूप में गायेंगे." फिर क्या था बिस्मिल जी  ने आनन-फानन में यह गीत लिख डाला. देहरादून से  सन 1929  में श्रीयुत हुलासवर्मा 'प्रेमी' तथा लाहौर से  1930 में श्रीयुत लक्ष्मण 'पथिक' द्वारा प्रकाशित  पुस्तक 'क्रान्ति गीतांजलि' में 'बसन्तीचोला' शीर्षक से यह गीत इस  प्रकार प्रकाशित हुआ था :

मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे,...
मेरा रँग दे बसन्ती चोला.
इसी रंग में रँग के शिवा ने माँ का बन्धन खोला.
यही रंग हल्दीघाटी में था प्रताप ने घोला.
अब बसन्त में भारत के हित वीरों का यह टोला.
आज उसी को पहन के निकला यह बासन्ती चोला.
मेरा रँग दे बसन्ती चोला.
मेरा रँग दे बसन्ती चोला. मेरा रँग दे.,..
मेरा रँग दे बसन्ती चोला.

अगले दिन ' बसन्त पंचमी' के दिन भरी अदालत में सभी क्रान्तिकारियों ने बड़ी मस्ती में झूमते हुए यही  'रँग दे बसन्ती चोला' गीत गाया था. इन्टरनेट पर अपने सभी प्रिय पाठकों के लिए हम यह गीत देते हुए आज बड़े गौरव  का अनुभव करते हैं.             

1 comment:

Nripendra said...

ये सच्चा इतिहास मैं नही जनता था.हमें लगता था की मनोरंजनार्थ भगत सिंह ने ये गीत गाया था . क्यूंकि इतिहास कोई घटना विशेष नही होती. इतिहास हमेशा व्याख्या मांगती हैं. बिना सही व्याख्या के इतिहास किसी काम का नही होता, वो किसी का भला नही कर सकती.. ये पढ़कर लगता हैं की मैंने या मेरी पीढ़ी ने सच्चा इतिहास नही पढ़ा.