Friday, July 8, 2011

Devil of Democracy

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6 comments:

Nripendra said...

प्रजातन्त्र का पुतला

विगत डेढ़ सौ वर्षों के कालखण्ड में जो तन्त्र सर्वाधिक विकसित हुआ है उसे हम लोकतन्त्र या प्रजातन्त्र के नाम से जानते हैं। इसके आते ही विश्व में यत्र तत्र सर्वत्र राजतन्त्रीय, अल्पतन्त्रीय और धनिकतन्त्रीय घटनायें घटने लगी हैं। यद्यपि वस्तुस्थिति यह है कि वर्तमान प्रजातन्त्र में बाह्य रूपों की विविधताओं के बावजूद प्रजाहित के महत्वपूर्ण निर्णय कुछ थोड़े से व्यक्तियों द्वारा लिये जाते हैं। उच्चतम शासकीय शक्ति पर उन थोड े से लोगों के एकाधिकार से प्रजातन्त्रीय पद्धति में गुणात्मक परिवर्तन की कोई बहुत बड ी आशा नहीं की जा सकती। क्योंकि इस प्रकार चुनी हुई सरकारें सत्ता-प्राप्ति की होड में जनता का विश्वास अर्जित करने के लिये भाँति-भाँति के संचार-साधनों, आत्म-विज्ञापनों तथा अधुनातन प्रकाशनों का आश्रय लेती हैं।इसका दुष्परिणाम यह होता है कि अशिक्षित जनता उससे प्रभावित हो जाती है और फिर से उन्हीं को चुन लेती है। इस प्रकार प्रजातन्त्र की आड़ में वंशतन्त्र का विष वृक्ष पनपने लगता है जो भारत तो क्या, किसी भी देश के वास्तविक लोकतन्त्र के लिये कोई शुभ लक्षण नहीं है।
वर्तमान काल में व्यक्तिगत विकास के लिये शिक्षा अत्यधिक महत्वपूर्ण है। प्रजातन्त्र की शर्त है कि आम जनता में शिक्षा का सर्वाधिक विस्तार हो। वस्तुतः प्रजातन्त्र में प्रजा ही तो वह तन्त्र अथवा मूलमन्त्र है जिससे शासनतन्त्र का सही चुनाव हो सकता है। चयनकर्ताओं अथवा निर्वाचकों की समुचित शिक्षा के अभाव में प्रजातन्त्र का स्वरूप उस धोखे के पुतले के समान है जिसे किसान अपने खेतों की सुरक्षा हेतु बनाकर बीचों-बीच खड़ा कर देते हैं। रात में जैसे ही जानवर खेत चरने की मंशा से आते हैं, पुतला देखते ही भाग जाते हैं। किसी भी राष्ट्र रूपी खेत की वास्तविक सुरक्षा के लिये ऐसे धोखे के पुतले की आवश्यकता नहीं।

Nripendra said...
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Nripendra said...

यदि हम यह चाहते हैं कि हमारे देश में मतदाता अपना सही प्रतिनिधि चुन सकें तो उन्हें इस प्रकार की शिक्षा मिलनी चाहिये जिससे वह योग्य और अनुभवी व्यक्तियों को ही शासन का अधिकार दें। अतएव आज आवश्यकता इस बात की है कि भारतीय शिक्षा पद्धति लोगों के बौद्धिक विकास और समझ बूझ को विस्तृत करे, संकुचित नहीं। केवल साक्षर बना देने से काम नहीं चलेगा। यदि उसने अँगूठा लगाने के बजाय हस्ताक्षर कर दिये तो बड़ा समझदार मतदाता हो गया, यह कहना धोखेबाजी है। मतदाताओं को यह समझाना चाहिये कि वे अपना अमूल्य मत देकर किसी प्रत्याशी विशेष या जाति विशेष पर कृपा नहीं कर रहे हैं; क्योंकि चुना हुआ व्यक्ति समग्र राष्ट्र, प्रदेश या समाज के लिये उत्तरदायी है न कि किसी व्यक्ति विशेष या समुदाय के प्रति।अब तक यही होता रहा है कि मतदाताओं को केवल इतनी ही शिक्षा दी गयी जिससे उन्हें थोक के भाव खरीद कर कोल्ड स्टोरेज में जमाकर लिया जाये और समय आने पर जो राजनीतिक दल अच्छे दाम दे उसके हाथ बेंचा जा सके। मतदाताओं की वर्तमान ठेकेदारी प्रथा भारतीय प्रजातन्त्र के लिये अत्यन्त घातक है, यह बात हम सबको समझनी व दूसरों को समझानी चाहिये।
वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए इस बात की बहुत बड़ी सम्भावना है कि लोग अपने मताधिकार का दुरुपयोग करें। यह महज सम्भावना नहीं, प्रत्यक्ष अनुभव में आने लगा है। अतः इस बात की चिन्ता की जाय जिससे कि भारतीय समाज में ऐसे बुद्धिजीवियों का वर्चस्व स्थापित हो जो आम मतदाताओं को उनके सामूहिक उत्तरदायित्व और मताधिकार के महत्व को भाँति-भाँति समझा सकें। यह प्रक्रिया समाज के लोगों में निरन्तर चलनी चाहिये। भारतीय प्रजातन्त्र की सफलता के लिये हमें ऐसे अध्यवसायी नागरिक बहुत बड ी संखया में चाहिये जिनकी कि विविध राजनीतिक कार्यों में रुचि हो और उनमें इतनी चतुराई भी हो कि वे चुनाव में खड े होने वाले प्रत्याशियों के गुण-दोषों को पहचान सकें। भारत के राजनीतिक व प्रशासकीय क्षेत्रों में पनपते जा रहे भ्रष्टाचार और परिवारवाद का उन्मूलन तभी हो सकता है जब बहुत बड ी मात्रा में ऐसे समझदार नागरिक हों जो अपने मत के महत्व को समझें।

Nripendra said...

आजकल सामान्यतः यह समझा जाता है कि शिक्षा से व्यक्ति की कार्यकुशलता बढ़ती है और इस कार्यकुशलता से देश की उत्पादन क्षमता पर प्रभाव पड ता है तथा उसकी आर्थिक स्थिति मजबूत होती है। किन्तु इसके अतिरिक्त शिक्षा से एक दूसरा लाभ यह भी है कि इससे सामान्य मतदाताओं में अपने क्षेत्र के प्रतिनिधियों से प्रत्यक्ष वार्तालाप करने, उनको सुझाव देने, उनसे शिकायत करने तथा उनका समाधान चाहने की प्रवृत्ति निर्माण होती है। वर्तमान समय के अन्तर्राष्ट्रीय तनावपूर्ण वातावरण और झगड ों को देखते हुए यह भी आवश्यक है कि मतदाताओं अथवा सरकार के निर्वाचकों को विभिन्न राजनीतिक दलों के आदर्शों व उनकी कार्यपद्धति के विषय में पूर्ण जानकारी उपलब्ध करायी जाये।

वर्तमान प्रजातन्त्रीय पद्धति को मात्र स्वीकार लेने और रूढ़िगत तरीके से उस पर आचरण करने से काम नहीं चलने का। भारतीय मतदाताओं में अपना सही प्रतिनिधि चुनने के प्रति जो उदासीनता देखी जाती है उसके लिये यह आवश्यक है कि समय-समय पर जनता को राजनीतिक क्षेत्रों में होने वाली गतिविधियों से परिचित कराया जाये। उन्हें सही गलत की पहचान करायी जाये। उन्हें इस कार्य में रुचि लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाये और उन्हें सच्चा, ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ तथा कार्यकुशल जन-प्रतिनिधि चुनने के लिये आग्रह किया जाये। वरिष्ठ नागरिकों को समाज व राष्ट्रहित में यह कार्य करना चाहिये।

KRANT M.L.Verma said...

Actually this article of mine was published in a souvineer of Varishtha Nagraik Samaj the file of which was e-mailed to me by the printer. I had copied and pasted it here that is why it looks like this. Thank you very much for converting and posting it in the colomn of comment.Now it is easier to understand by any viewer of my blog.

Vivek Krishna said...

अशिक्षित व्यक्ति की आकांक्षा प्रायः मरी होती है.उनकी चेतना शुन्य होती है. वे आराम से गुमराह कर लिए जातें है और उनका उपयोग राजनितिक लोग अपना उल्लू सीधा करने में करतें है. वो दुनिया अपनी दृष्टि से नहीं देख पातें है और कुँए की मेंढक की तरह संकीर्ण मानसिकता के हो जाते हैं. वे जातिगत दलदल में इस तरह से धसे होते हैं की अपनी सरकार से भोजन, वस्त्र और आवास जो मूलभूत आवश्यकता है उसके बारे में भी मांग नहीं करते. कुछ राज्यों में जान बुझकर लोगो को लोगों को शिक्षा से वंचित रखा गया ताकि उन्हें बहकाकर उनके वोट को प्राप्त किया जा सके. अशिक्षा के कारण उनके आँखों पर पर्दा पर जाता है और जब पर्दा उठता है तो वे अपने आपको विकास से कोसों दूर पातें हैं.