शंकर दयाल सिंह (१९३७-१९९५) भारत के राजनेता तथा हिन्दी साहित्यकार थे। वे राजनीति व साहित्य दोनों क्षेत्रों में समान रूप से लोकप्रिय थे। उनकी असाधारण हिन्दी सेवा के लिये उन्हें सदैव स्मरण किया जाता रहेगा। उनके सदाबहार बहुआयामी व्यक्तित्व में ऊर्जा और आनन्द का अजस्र स्रोत छिपा हुआ था। उनका अधिकांश जीवन यात्राओं में ही बीता और यह भी एक विचित्र संयोग ही है कि उनकी मृत्यु भी यात्रा के दौरान उस समय हुई जब वे संसद के शीतकालीन अधिवेशन में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने पटना से दिल्ली आ रहे थे। नई-दिल्ली रेलवे स्टेशन पर २७ नवम्बर १९९५ की सुबह ट्रेन से कहकहे लगाते हुए शंकर दयाल सिंह नहीं उतरे, वोझिल मन से उनके परिजनों ने उनके शव को उतारा।
जन्म और जीवन
बिहार के औरंगाबाद जिले के भवानीपुर देव गाँव में २७ दिसम्बर १९३७ को प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी, साहित्यकार व बिहार परिषद के सदस्य स्व० कामताप्रसाद सिंह के यहाँ जन्मे बालक के माता-पिता ने अपने आराध्य देव शंकर की दया का प्रसाद समझ कर उसका नाम शंकर दयाल रखा जो जाति सूचक शब्द के संयोग से शंकर दयाल सिंह हो गया। छोटी उम्र में ही माता का साया सिर से उठ गया अत: दादी ने उनका पालन पोषण किया। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक (बी०ए०) तथा पटना विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर (एम०ए०) की उपाधि (डिग्री) लेने के पश्चात १९६६ में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य बने और १९७१ में सांसद चुने गये। एक पाँव राजनीति के दलदल में सनता रहा तो दूसरा साहित्य के कमल की पांखुरियों को कुरेद-कुरेद कर जन - जन में उसका सौरभ लुटाता रहा। श्रीमती कानन बाला जैसी सुशीला प्राध्यापिका पत्नी, दो पुत्र - रंजन व राजेश तथा एक पुत्री - रश्मि; और क्या चाहिये सब कुछ तो उन्हें अपने जीते जी मिल गया था तिस पर मृत्यु भी मिली तो इतनी नीरव इतनी शान्त कि शरीर को एक पल का भी कष्ट नहीं होने दिया।
विविध कार्य
समाचार भारती के निदेशक पद से प्रारम्भ हुई शंकर दयाल सिंह की जीवन-यात्रा संसदीय राजभाषा समिति, दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी, भारतीय रेल परामर्श समिति, भारतीय अनुवाद परिषद, केन्द्रीय हिन्दी सलाहकार समिति जैसे अनेक पडावों को पार करती हुई देश-विदेश की यात्राओं का भी आनन्द लेती रही और अपने सहयात्रियों के साथ उन्मुक्त ठहाके लगाकर उनका रक्तवर्धन भी करती रही। और अन्त में उनकी यह यात्रा रेलवे के वातानुकूलित शयनयान में गहरी नींद सोते हुए २७ नवम्बर १९९५ को उस समय समाप्त हो गयी जब उनके जन्म दिन की षष्टिपूर्ति में मात्र एक मास शेष रह गया था। यदि २७ दिसम्बर १९९५ के बाद भी उनकी यात्रा जारी रहती तो अपना ६०वाँ जन्म-दिन उन्हीं ठहाकों के बीच मनाते जिसके लिये वे अपने मित्रों के बीच जाने जाते थे। उनकी एक विशेषता यह भी रही कि उन्होंने जीवन पर्यन्त भारतीय जीवन मूल्यों की रक्षा के साथ-साथ भारतीय संस्कृति का पोषण किया भले ही इसके लिये उन्हें कई बार उलझना भी पडा किन्तु अपने विशिष्ट व्यवहार के कारण वे उन तमाम वाधाओं पर एक अपराजेय योद्धा की तरह विजय पाते रहे।राजनीति की धूप
शंकर दयाल सिंह लोकसभा व राज्यसभा दोनों के सदस्य रहे किन्तु चूँकि मूलत: वे एक साहित्यकार थे अत: राजनीति में होने वाले दाव पेंच उन्हें रास नहीं आते थे और वे उसकी तेज धूप से बचने के लिये बहुधा साहित्य का छाता तान लिया करते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि वे अपने लेखों में उन सबकी बखिया उधेड कर रख देते थे जो उनके शुद्ध अन्त:करण को नीति विरुद्ध लगते थे। जैसे सरकार की ग्रामोत्थान के प्रति तटस्थता का भाव उन्हें सालता था तो वह संसद की चर्चाओं में तो अपनी बात रखते ही थे विविध पत्र-पत्रिकाओं में लेख भी लिखते थे जिन्हें पढकर विरोधी-पक्ष खुश और सत्ता-पक्ष (कांग्रेस), जिसके वे स्वयं सांसद हुआ करते थे, नाखुश रहता था। देखा जाये तो राजनीति में, आज जहाँ प्रत्येक पार्टी ने केवल चाटुकारों की चण्डाल-चौकडी का मजमा जमा कर रक्खा है जिसके कारण राजनीति के तालाब में स्वच्छ जल की जगह कीचड ही कीचड नजर आ रही है; वहाँ के प्रदूषित वातावरण में शंकरदयाल सिंह सरीखे कमल की कमी वास्तव में खलती है। उन्होंने लगभग २५ लेख राजनीतिक उठापटक को लेकर ही लिखे जो तत्कालीन समाचारों की सुर्खियाँ तो बने ही, पुस्तकाकार रूप में पुस्तकालयों में उपलब्ध भी हैं।साहित्य की छाँव
जीवन को धूप-छाँव का खेल मानने वाले शंकर दयाल सिंह का यह मानना एक दम सही था कि जिस प्रकार प्रकृति अपना संतुलन अपने आप कर लेती है उसी प्रकार राजनीति में काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को साहित्यकार होना पहली योग्यता का मापदण्ड होना चाहिये। वे अपने से पूर्ववर्ती सभी दिग्गज राजनीतिक व्यक्तियों का उदाहरण प्राय: दिया करते थे और बताते थे कि वे सभी दिग्गज लोग साहित्यकार पहले थे बाद में राजनीतिकार या कुछ भी; जिसके कारण उनके जीवन में निरन्तर सन्तुलन बना रहा और वे देश के साथ कभी धोखा नहीं कर पाये। आज जिसे देखो वही राजनीति को व्यवसाय की तरह समझता है सेवा की तरह नहीं; यही कारण है कि सर्वत्र अशान्ति का साम्राज्य है। हालात यह हैं कि आजकल राजनीति की धूप में नेताओं के पाँव कम, जनता के अधिक झुलस रहे हैं। उन्हीं के शब्दों में - "मैंने स्वयं राजनीति से आसव ग्रहण कर उसकी मस्ती साहित्य में बिखेरी है। अनुभव वहाँ से लिये, अनुभूति यहाँ से। मरण वहाँ से वरण किया जीवन यहाँ से। वहाँ की धूप में जब-जब झुलसा,छाँव के लिये इस ओर भागा। लेकिन यह सही है कि धूप्-छाँव का आनन्द लेता रहा, आँख-मिचौनी खेलता रहा।" (उद्धरण:-राजनीति की धूप : साहित्य की छाँव शंकर दयाल सिंह पृष्ठ ११७ से)भाषा की भँवर में
भारतवर्ष को स्वतन्त्रता के पश्चात यदि कोई एक नीति एकजुट रख सकती थी तो वह केवल एक भाषागत राष्ट्रीय-नीति ही रख सकती थी किन्तु हमारे देश के कर्णधारों ने इस ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया अपितु एक के बजाय अनेक भाषाओं के भँवर-जाल में उलझाकर डूब मरने के लिये विवश कर दिया है। जब भारतीय स्वतंत्रता संग्राम अथवा हमारी आजादी का युद्ध एक भाषा हिन्दी के माध्यम से लडा गया, उसमें किसी भी प्रान्त-भाषा-भाषी ने यह अडंगा नहीं लगाया कि पहले उनकी भाषा सीखो तभी वे एकजुट होकर तुम्हारा साथ देंगे अन्यथा नहीं देंगे। इस तरह यदि करते तो क्या कभी १९४७ में हिन्दुस्तान आजाद हो सकता था? कदापि नहीं। राष्ट्र-भाषा तो एक ही हो सकती है अनेक तो नहीं हो सकतीं। यदि राष्ट्र-भाषायें एक के स्थान पर १५ या २० कर दी जायेंगी तो निश्चित मानिये प्रान्तीयता का भाव प्रत्येक के मन में पैदा होगा और उसका दुष्परिणाम यह होगा कि यह राष्ट्र विखण्डन की ओर अग्रसर होगा, एकता की ओर नहीं।यायावरी के अनुभव
शंकर दयाल सिंह चूँकि सांसद भी रहे और संसदीय कार्य-समितियों में उनकी पैठ भी बराबर बनी रही अतएव उन्हें सरकारी संसाधनों के सहारे विभिन्न देशों व स्थानों की यात्रायें करने का सुख भी उपलब्ध हुआ। परन्तु उन्होंने वह सुख अकेले न उठाकर अपने साहित्यिक मित्रों को भी उपलब्ध कराया तथा लेखों के माध्यम से अपने पाठकों को भी पहुँचाया। सोवियत संघ की राजधानी मास्को से लेकर सूरीनाम और त्रिनिदाद तक की महत्वपूर्ण यात्राओं के वृतान्त पढकर हमें यह लगता ही नहीं कि शंकर दयाल सिंह हमारे बीच नहीं हैं। अपितु कभी-कभी तो ऐसा आभास-सा होता है जैसे वह हमारे इर्द-गिर्द घूमते हुए लट्टू की भाँति गतिमान इस भूमण्डल के चक्कर अभी भी लगा रहे हैं। पारिजात प्रकाशन, पटना से प्रथम बार सन् १९९२ में प्रकाशित पुस्तक राजनीति की धूप : साहित्य की छाँव में पृष्ठ ३०१ से ३३१ तक लेखों के माध्यम से दिये उनकी यायावरी (घुमक्कडी वृत्ति) के अनुभव बडे ही रोचक हैं।रचना संसार
सन १९७७ से 'सोशलिस्ट भारत' में उनके लेख प्रकशित होने प्रारम्भ हुए जो सन १९९२ तक अनवरत रूप से छपते ही रहे ऐसा उल्लेख उनकी बहुचर्चित पुस्तक राजनीति की धूप : साहित्य की छाँव में पृष्ठ ३४४-३४५ पर मिलता है। इसी के आगे दी गयी शंकरदयाल सिंह की प्रकाशित पुस्तकों की सूची इस प्रकार है:
- राजनीति की धूप:साहित्य की छाँव
- इमर्जेन्सी:क्या सच,क्या झूठ
- परिवेश का सुख
- मैने इन्हें जाना
- यदा-कदा
- भीगी धरती की सोंधी गन्ध
- अपने आपसे कुछ बातें
- आइये कुछ दूर हम साथ चलें
- कहीं सुबह:कहीं छाँव
- जनतन्त्र के कठघरे में
- जो साथ छोड गये
- भाषा और साहित्य
- मेरी प्रिय कहानियाँ
- एक दिन अपना भी
- कुछ बातें:कुछ लोग
- कितना क्या अनकहा
- पह्ली बारिस की छिटकती बूँदें
- बात जो बोलेगी
- मुरझाये फूल:पंखहीन
- समय-सन्दर्भ और गान्धी
- समय-असमय
- यादों की पगडण्डियाँ
- कुछ ख्यालों में:कुछ ख्वाबों में
- पास-पडोस की कहानियाँ
- भारत छोडो आन्दोलन
सम्मान व पुरस्कार
राष्ट्रभाषा हिन्दी के लिये शंकर दयाल सिंह ने आजीवन आग्रह भी किया, युद्ध भी लडा और यदा-कदा आहत भी हुए। इस सबके बावजूद उन्हें सन् १९९३ में अनन्तगोपाल शेवडे हिन्दी सम्मान तथा सन् १९९५ में गाड्गिल राष्ट्रीय सम्मान से नवाजा गया परन्तु इससे वे पूर्णत: मानसिक रूप से सन्तुष्ट नहीं कभी नहीं हुए। निस्सन्देह शंकर दयाल सिंह पुरस्कार या सम्मान पाकर अपनी बोलती बन्द कर देने वालों की श्रेणी के व्यक्ति नहीं, अपितु और अधिक प्रखरता से मुखर होने वालों की श्रेणी के व्यक्ति थे। यही कारण था कि प्रतिष्ठित लेखक के रूप में केन्द्र सरकार ने भले ही कोई पुरस्कार या सम्मान न दिया हो, जिसके वे वास्तविक अधिकारी थे; परन्तु देश भर से कई संस्थाओं, संगठनों व राज्य-सरकारों से उन्हें अनेकों पुरस्कार प्राप्त हुए।
सन्दर्भ एवम् आभार
- राजनीति की धूप : साहित्य की छाँव शंकर दयाल सिंह १९९२ पारिजात प्रकाशन पटना-१
- मेरे ये आदरणीय और आत्मीय आशा रानी व्होरा २००२ नमन प्रकाशन नई दिल्ली-२ ISBN : 8187368071